Saturday, March 16, 2013

शांकर-वेदान्तीय जगत् : एक तार्किक परीक्षण
(ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन के विशेष सन्दर्भ में)


सारांश

“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” श्रुतिवाक्य का आधार लेकर अद्वैत-वेदान्त दर्शन के प्रतिष्ठापक आचार्य शंकर ने “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” रूपी महान वेदान्त वाक्य का उद्घोष किया है जिससे संसार की बाह्य वस्तुओं की अविद्यमानता सिद्ध हो जाती है । परन्तु इस नानाविधात्मक जगत् में वस्तुओं की स्थिति का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाता है तथा आधुनिक विज्ञान भी इस वस्तु-जगत् की सत्यता को स्वीकार करता है यद्यपि यह निरन्तर परिवर्तनशील है । अतः उक्त श्रुतिवाक्य दर्शन के तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में एक बृहत् कठिनाई उपस्थित कर देता है । पुनश्च आचार्य शंकर ने जगत् सम्बन्धी दृष्टिकोण को परिप्रकाशित करने के लिए भ्रम, स्वप्न, मायाजाल आदि के रूप में उसका वर्णन कर रज्जु-सर्प, सीपी-चाँदी, घटाकाश-महाकाश आदि विभिन्न दृष्टान्तों का समुल्लेख किया है । ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन इस जगत् सम्बन्धी विचारधारा के प्रसंग में वैज्ञानिक व व्यावहारिक ज्ञान को संयोजित कर तार्किक रीति से अद्वैत-वेदान्त दर्शन के उपर्युक्त मतों का खण्डन करता है तथा जगत् सम्बन्धी एक वास्तविक दृष्टिकोण प्रदान करने का प्रयत्न करता है । प्रस्तुत शोधलेख मुख्य रूप से शांकर वेदान्तीय जगत् का ब्रह्माकुमारीज़ दृष्टिकोण की ओर से एक समीक्षणात्मक अनुशीलन है ।

उपक्रम

आधुनिक विज्ञान के अनुसार जगत् की वस्तुएँ वास्तविक हैं । वे द्रव्य पर प्रकृति की विभिन्न प्रक्रियाओं तथा विभिन्न शक्तियों की क्रिया के परिणाम तथा फल है । इन्द्रियानुभव से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि जगत् की वस्तुएँ उस सामग्री से नहीं बनी हैं जिससे स्वप्न या भ्रम का सृजन होता है । निश्चित रूप से जगत् की वस्तुएँ वैसी नहीं हैं जैसी वे दिखाई देती हैं क्योंकि मूलतः वे अणुओं से बनी हैं, जो परमाणुओं से निर्मित हैं और परमाणु इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन या उप-परमाणु कणों से निर्मित हैं, जो प्रचण्ड वेग से कंपित होते हैं और ये उप-परमाणु कण वस्तुतः द्रव्य ऊर्जा है और यह ऊर्जा द्रव्य, द्रव्य रूपों में परिवर्तनीय हैं । यद्यपि वस्तुएँ एक अवधि तक गैस, द्रव या ठोस रूप में रहती हैं तथापि उनमें सतत परिवर्तन होता रहता है । और अन्ततः वे अपने घटकों, प्रोटॉनों, इलेक्ट्रॉनों तथा न्यूट्रॉनों में सखंडित या विघटित हो जाती हैं । प्रत्येक कण विभाजित या विघटित होता है । इस प्रकार, यद्यपि जगत् की वस्तुएँ वस्तुतः वैसे नहीं हैं जैसी दिखाई देती हैं । और चाहे कितनी भी धीमी गति से विघटित वा परिवर्तन होती रहती हैं, तथापि वे उन वस्तुओं जैसी नहीं है जो किसी स्वप्न में या भ्रम में दिखाई देती हैं ।

किन्तु अद्वैतवेदान्त दर्शन के प्रवर्तक शंकराचार्य ने “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” श्रुतिवाक्य को आधार बनाकर “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” रूपी वेदान्त वाक्य का उद्घोष किया है जिससे संसार की बाह्य वस्तुओं की अविद्यमानता सिद्ध हो जाती है । अर्थात् जगत् एक स्वप्न की भाँति मिथ्या है, भ्रम है और वस्तुरूप जगत् का अस्तित्व ही नहीं है । इस सन्दर्भ में ब्रह्माकुमारी संस्थान के मुख्य प्रवक्ता ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा अभिधान करते हैं कि उक्त श्रुतिवाक्य दर्शन के तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र में एक बृहत् कठिनाई उपस्थित कर देता है जिसमें उल्लिखित है कि ईश्वर अनन्त है, तो अन्य सत्ताओं के अस्तित्व की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती । किन्तु व्यावहारिक जीवन में यह स्पष्टतः देखा जाता है कि जगत् में असंख्य निर्जीव और भौतिक वस्तुएँ हैं और अगणित जीवित प्राणी भी हैं । यदि ईश्वर को अनन्त विस्तार कहा जाए तो इन असंख्य रूपों के अस्तित्व को स्पष्ट कैसे किया जा सकता है?

इसलिए यह प्रश्न उठता है कि अनेक जीवों और वस्तुओं के दृश्यमान अस्तित्व का मेल ईश्वर के अनन्त विस्तार के साथ कैसे बिठाया जाये?- इस गुत्थी को सुलझाने के लिए शंकराचार्य ने वस्तुतः जीवों और वस्तुओं के पृथक् अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है । शंकर के अनुसार इतने अधिक जीवों और वस्तुओं का अस्तित्व केवल एक आभास, एक भ्रम या एक अवास्तविकता है । यह केवल जो वास्तविक है, उस पर अवास्तविक का मात्र एक अध्यारोप है । अन्य शब्दों में, जिस प्रकार अन्धकार के कारण मनुष्य को रस्सी साँप जैसी दिखाई देती है यद्यपि वह साँप नहीं है, उसी प्रकार अज्ञान के कारण मनुष्य ब्रह्म में जगत् को देखता है । अर्थात् जिस प्रकार अन्धकार में अस्पष्ट दिखाई देने वाली रस्सी को साँप मान लिया जाता है, उसी प्रकार जीव को (ब्रह्म या परम सत्ता से) भिन्न मान लिया जाता है । शंकराचार्य अपने गुरु गौड़पादाचार्यकृत गौड़पादकारिका से उद्धरण प्रदान कर कथन करते हैं कि परम सत्य यह है न तो किसी का विलय होता है और न सृजन होता है, न तो कोई व्यक्ति बन्धन में होता है और न कोई आध्यात्मिक प्रयास करता है, न तो कोई मुक्ति पाने की कोशिश करता है और न कोई मुक्त होता है ।

पुनश्च आदि शंकराचार्य ने वर्णित किया है कि अज्ञान या माया के द्वारा भ्रमित होने के कारण जीव ब्रह्म में जगत् को देखता है अर्थात् ब्रह्म जगत् के रूप में आभासित होता है । एवं इसी भ्रमरूप जगत् की अवास्तविकता या अविद्यमानता को प्रकट करने के लिए अद्वैतवादी आचार्य शंकर ने अनेक दृष्टान्तों व उदाहरणों का प्रदर्शन किया है ।

1. सीपी का उदाहरण, जो चन्द्रमा के प्रकाश में चाँदी के टुकड़े जैसी दिखाई देती है ।
2. मरीचिका का दृष्टान्त, जो तप्त सूर्य प्रकाश में दूर से जल जैसी प्रतीत होती है ।

किन्तु ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उपर्युक्त दृष्टान्तों का तार्किक विश्लेषण व परीक्षण कर जगत् सम्बन्धी विचारधारा के बारे में एक उपयुक्त तथ्य को सर्वसमक्ष प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं जिसका उल्लेख अधुना किया जा रहा है ।

भ्रम के घटित होने के लिए आवश्यक स्थितियाँ

जगदीश चन्द्र वर्णन करते हैं कि भ्रम के घटित होने के लिए निम्नोक्त स्थितियों की आवश्यकता होती है-

1. प्रथमतः, ऐसी स्थितियाँ विद्यमान हों कि वस्तु का अवास्तविक या विकृत रूप दिखाई दे । उदाहरणार्थ, सूर्य का प्रकाश हो जिससे रेत के टीले उन पर पड़ने वाले प्रकाश को प्रतिबिम्बित तथा विकीर्णित करें और जल की तरंगों का मिथ्या आभास उत्पन्न करें । विज्ञान के छात्र यह जानते हैं कि जब पेंसिल को जलभरे ग्लास में डाला जाता है तो जहाँ वह जल की सतह को छूती है वहाँ वह टूटी हुई दिखाई देती है । दो माध्यमों अर्थात् जल और वायु के बीच के अन्तर के कारण अपवर्तन होता है । टूटी हुई पेंसिल का आभास उत्पन्न होने के लिए अपवर्तन घटित होने वाली स्थिति का होना आवश्यक है । उसी प्रकार सीपी चाँदी के टुकड़े जैसी आभासित होने के लिए या चाँदी का टुकड़ा सीपी जैसा आभासित होने के लिए या रस्सी साँप जैसी या साँप रस्सी जैसा दिखाई देने के लिए अन्धकार या अर्ध प्रकाश की स्थिति का होना आवश्यक है ।

2. द्वितीयतः, वास्तविक वस्तु तथा भ्रमवश दिखाई देने वाली वस्तु के बीच साम्य होना चाहिए । उदाहरणार्थ, साँप और रस्सी तथा सीपी और चाँदी के टुकड़े में आभास साम्य है जिसके कारण भ्रम घटित होता है । भ्रमवश किसी रस्सी को हाथी नहीं समझा जाता है क्योंकि वे दोनों नितान्त असमान है । यदि रेत के टीले तरंगों जैसे होते या यदि वे प्रकाश का परावर्तन इस प्रकार न करते मानो कि जल हो तो कोई भ्रम उत्पन्न न होता ।

3. तृतीयतः, भ्रम की स्थिति के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनों वस्तुएँ, उदाहरणार्थ पहले साम्यानुमान में रस्सी और साँप तथा दूसरे साम्यानुमान में चाँदी का टुकड़ा और सीपी वास्तविक हों । इसके अतिरिक्त उस प्रेक्षक ने (जिसे भ्रम होता है) पहले कभी साँप और रस्सी को तथा सीपी और चाँदी के टुकड़े को देखा हो । यदि इन वस्तुओं में से केवल एक ही वस्तु का अस्तित्व होता और दूसरी वस्तु का अस्तित्व न होता तो एक को देखकर दूसरे का भ्रम नहीं हो सकता ।

4. चतुर्थतः, भ्रम तब संघटित होता है जब देखने वाले व्यक्ति के पास अधिदृष्टि या अधिज्ञान न हो, बल्कि वह सदोष आभासों या त्रुटिपूर्ण प्रत्यक्षणों का शिकार हो जाता हो । यदि कोई व्यक्ति रेत के टीले को रेत के टीलों की तरह देख सकता है तो वह उनकी चकाचौंध से भ्रमित होकर जल की तरंगें नहीं मान सकता । उसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को अपवर्तन की प्रघटना का ज्ञान हो तो वह टूटी हुई पेंसिल के आभास से भ्रमित नहीं हो सकता । यदि किसी व्यक्ति के पास पूर्ण ज्ञान हो तो वह साँप को रस्सी या रस्सी को साँप नहीं मान सकता ।

उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार कर जगदीश चन्द्र एक निष्कर्ष उपस्थापित करते हैं-
i. यदि केवल अनन्त ब्रह्म या ईश्वर को छोड़कर कुछ भी नहीं होता तो असंख्य वस्तुओं का कोई भ्रम नहीं हुआ होता, क्योंकि ईश्वर या ब्रह्म और नाम तथा रूपधारी पार्थिव वस्तुओं में ऐसा कोई साम्य नहीं है जैसा कि साँप और रस्सी में है या सीपी और चाँदी के टुकड़े में हैं । ब्रह्म या ईश्वर निराकार प्रकाश है जो कि सत्य-ज्ञान-अनन्त है, जबकि जगत् की वस्तुओं का आकार सीमित है और उनमें संपूर्ण ज्ञान नहीं या अनन्त ज्ञान नहीं है ।

ii. इसके अतिरिक्त, केवल उसी को भ्रम हो सकता है जिसके पास पूर्ण ज्ञान नहीं है, जो उपरोक्त उल्लिखित हो चुका है । इसलिए ईश्वर या ब्रह्म जिसके पास अनन्त ज्ञान है, वह भ्रमित नहीं हो सकता । यदि ईश्वर को भ्रम होता है तो वह न तो पूर्ण और न सर्वशक्तिमान् है और इसलिए वह ईश्वर ही नहीं है ।

iii. पुनश्च रस्सी को साँप मानने या सीपी को चाँदी का टुकड़ा मानने का भ्रम तब होता है जब अधिक अन्धकार हो या अधिक प्रकाश हो । उसी प्रकार ईश्वर में नामों और रूपों वाले जगत् का भ्रम तब होता है जब द्रष्टा के पास अंशतः ज्ञान का प्रकाश हो और अंशतः अज्ञान का अन्धकार हो । दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यही है कि केवल मानव प्राणी को ही, जिसका ज्ञान अपूर्ण होता है और जो अंशतः प्रदीप्त हो, भ्रम हो सकता है ।

ब्र.कु. जगदीश शंकराचार्य और उनके अद्वैतवादी अनुयायियों की विचार-परम्परा पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि अद्वैतवादी ईश्वर या ब्रह्म के सिवाए किसी भी जीव के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, इसलिए यदि इस सिद्धान्त को, जो केवल एक अनन्त ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन करता है और अन्य जीवों या भौतिक वस्तुओं के अस्तित्व को नहीं मानता, स्वीकार कर लिया जाये तो भ्रम घटित हो ही नहीं सकता ।

दूसरी ओर, ब्र.कु. जगदीश चन्द्र यह उल्लेख करते हैं कि शंकराचार्य द्वारा प्रस्तुत भ्रम का साम्यानुमान ईश्वर के अस्तित्व के साथ-साथ भौतिक वस्तुओं और जीवों के जगत् के अस्तित्व को पहले से ही स्वीकार कर चलता है, जो पूर्वोक्त उल्लिखित हुआ है कि रस्सी को साँप मानने के भ्रम का साम्यानुमान दोनों के अस्तित्व को पहले से ही मानकर चलता है । यदि ईश्वर या ब्रह्म का अस्तित्व ही एकमात्र अस्तित्व होता और अन्य भौतिक वस्तुओं तथा मनुष्यों का अस्तित्व न होता तो पहले-दूसरे में भ्रम न होता । इससे यह प्रकट होता है कि शंकराचार्य द्वारा प्रस्तुत भ्रम का साम्यानुमान उनके कथन का समर्थन नहीं करता, जैसा कि उनका आशय है ।

इसके अतिरिक्त, यदि ईश्वर या ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है और अन्य जीव अवास्तविक हैं या कम से कम ईश्वर से उनके भेद की भावना अवास्तविक है या एक भ्रम है तो प्रश्न उठता है कि “यह भ्रम ईश्वर के मामले में कैसे घटित हुआ?” यदि ईश्वर का ज्ञान पूर्ण है और अपरिवर्तनशील (सत्य) है तो किसी भी परिस्थिति में उसके लिए यह सोचना असम्भव होना चाहिए कि वह एक भौतिक वस्तु या एक जीव है, जो कि न तो पूर्ण है और न अनन्त है । जिस प्रकार किसी रस्सी को साँप मान लेना या किसी साँप को रस्सी मान लेना मनुष्य की अज्ञानता है । उसी प्रकार यदि ईश्वर स्वयं को अनेक अपूर्णताओं से युक्त और कर्म बन्धनों से आबद्ध तथा सुख-दुःख से प्रभावित जीव के रूप में कल्पित करें तो यह उसकी अज्ञानता होगी ।

इस प्रकार ब्र.कु. जगदीश चन्द्र तर्कयुक्त प्रमाणों के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि कोई भी साम्यानुमान या उदाहरण उपनिषद् के सूत्र की पुष्टि नहीं करता, जिसको प्रारम्भ में उद्धृत किया गया है और जो शंकराचार्य के विश्वास के मूलाधार हैं और उनके तर्कों का मुख्य स्रोत हैं । अतः ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन यह प्रतिपादित करता है कि या तो सूत्र गलत है या फिर उसका अर्थ उस अर्थ से भिन्न है जो शंकराचार्य द्वारा प्रदत्त है । ब्र.कु. जगदीश अभिधान करते हैं कि संभवतः उक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ यह है कि ईश्वर का ज्ञान और सत्य अनन्त है । व्यावहारिक ज्ञान के आधार से यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है कि जगत् में असंख्य जीव तथा असंख्य भौतिक वस्तुएँभी विद्यमान हैं । इसलिए तार्किक दृष्टि से गलत साम्यानुमान देकर उनके अस्तित्व का खण्डन करना अनुभव के विपरीत होगा । अतः जगत् के प्रति शांकर दृष्टिकोण दोषपूर्ण है ।

पुनश्च शंकराचार्य ने अन्य उदाहरणों के माध्यम से यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि जीव और ब्रह्म या ईश्वर एक ही हैं । किन्तु जगदीश हसीजा उक्त शंकर-प्रदत्त दृष्टान्तों का भी तार्किक रीत्या खण्डन करते हैं । सर्वप्रथम जीव-ब्रह्म की तुलना में घटाकाश-महाकाश के साम्य का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है ।

‘घटाकाश-महाकाश’ का दृष्टान्त

शंकराचार्य गौड़पादभाष्य में जीव-ब्रह्म का ऐक्य स्थापित करने के लिए कथन करते हैं कि जिस प्रकार विभिन्न घड़ों के भीतर के अवकाश वस्तुतः एक ही अवकाश है, यद्यपि वे विभिन्न घड़ों की सीमित दीवारों के कारण विभिन्न अवकाश दिखाई देते हैं, उसी प्रकार सभी आत्माएँ वस्तुतः एक परम आत्मा, ब्रह्म या परमात्मा हैं, जो कि केवल (शरीरों, गुणों या उपाधियों की) परिसीमाओं के जरिए अनेक दिखाई देती हैं । जिस प्रकार घड़े आदि के टूट जाने पर अवकाश (जो कि पहले उनसे परिस्कृत या घिरा हुआ था) अवकाश में विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव परमात्मा में विलीन हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त जैसे किसी एक घड़े से परिस्कृत अवकाश को रेत (या मिट्टी) या धुम से भर दिया जाये तो वह दूसरे अवकाशों को प्रभावित नहीं करता, उसी प्रकार सुख आदि सभी जीवों को प्रभावित नहीं करते । अवकाश विभाजित किये बिना रूप, क्रिया आदि उन विभिन्न घड़ों के होते हैं, यही बात जीवों पर भी लागू होती है । इसके अतिरिक्त, जिस प्रकार विभिन्न घड़ों द्वारा परिस्कृत अवकाश न तो महाकाश का एक प्रभाव है न एक अंश है, उसी प्रकार जीवात्मा न तो परमात्मा का एक प्रभाव है और न एक अंश है । जीवात्माओं और परमात्मा की अनन्यता में कोई भेद नहीं है और उसका विवेचन किया जाना चाहिए । सर्वाधिक उपयुक्त कथन यह है कि अनेकता की निंदा की जानी चाहिए ।

ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उपरोक्त कथन के विषय में स्वकीय अभिमत प्रदान करते हुए उल्लेख करते हैं कि यह कहने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि विभिन्न घड़ों द्वारा परिस्कृत और बाहर के महा अवकाश और घड़ो के टूटने तथा परिणामस्वरूप लघु अवकाश के महा अवकाश में विलीन हो जाने का साम्यानुमान जीवों और ईश्वर के मामले में लागू नहीं होता । क्योंकि जबकि घड़े विद्यमान होते हैं और टूटते हैं, शंकराचार्य (जीवों को सीमा में बांधने वाले) शरीर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, वे बिना किसी अन्य के एकमात्र एक अनन्त ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं । दूसरी बात यह है कि घड़ों द्वारा अभिघृत या परिस्कृत अवकाश और सभी के चारों ओर फैला हुआ बाहर का महा अवकाश ज्ञानपूर्ण (ज्ञानम्) नहीं है और उस प्रतीक द्वारा अन्तश्चेतनायुक्त नहीं है, इसलिए उसके अन्य से प्रभावित होने या उसके परम आत्मा में विलीन हो जाने का प्रश्न ही नहीं है । जीव अन्तश्चेतनायुक्त प्राणी है और उनमें व्यक्तिगत संस्कार हैं और उनके अपने-अपने शरीरों के विनष्ट हो जाने पर (इस साम्यानुमान में घड़ों के टूटने से तुलनीय) वे परम आत्मा में विलीन नहीं हो सकते, जो कि पूर्ण और ज्ञानपूर्ण है । वस्तुतः जीव उतने पूर्ण कभी भी नहीं हो सकते जितना कि ईश्वर है, क्योंकि यदि वे इतने पूर्ण हो सकते तो उनके सामने भ्रमित होने का अवसर न आता या वे अज्ञान की अवस्था में न होते । इसके अतिरिक्त, इस बात का स्मरण रखा जाना चाहिए कि एक जीव का सुख दूसरों को प्रभावित करता है, एक मनुष्य के सुख की अवस्था पौधों तक को भी प्रभावित करती है- यह विज्ञान द्वारा सिद्ध हो चुका है । इसलिए घटाकाश आदि का साम्यानुमान ईश्वर तथा जीवों के मामले में किसी भी प्रकार से लागू नहीं होता, क्योंकि ईश्वर पूर्ण अन्तश्चेतनायुक्त सत्ता है और जीव भ्रम के वशीभूत हैं इसलिए प्रभावित होते हैं तथा अपूर्ण हैं और अपने बीच बहुत असमान होते हैं ।

पुनश्च आचार्य शंकर मायाजाल का उदाहरण प्रस्तुत कर जगत् के अविद्यमानता की बात का समर्थन करते हैं । परन्तु जगदीश इस विचार की भी समीक्षा करते हैं ।

‘मायाजाल’ का साम्यानुमान

आचार्य शंकर प्रदत्त मायाजाल के साम्यानुमान को त्रुटिपूर्ण सिद्ध करते हुए ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उल्लेख करते हैं कि वस्तुतः, मायाजाल और कुछ नहीं है बल्कि करतब या हाथ की सफाई है । किसी जादूगर द्वारा दिखाई गई वस्तुएँलोगों के सामने अचानक आती हैं और जादूगर उन वस्तुओं को चतुराई से और धूर्तता से छिपाता या प्रकट करता है, इसलिए दर्शक उसके करतबों को पकड़ नहीं पाते । इसके अतिरिक्त, मायाजाल के खेल के लिए जादूगर का होना, दर्शकों का होना और दिखाई जाने वाली अनेक वस्तुओं का होना आवश्यक है और यह भी आवश्यक है कि दर्शक दिखाई जाने वाले करतबों से परिचित हों । किन्तु इस मामले में, शंकराचार्य ईश्वर के सिवाए किसी के भी अस्तित्व में विश्वास नहीं करते । इसलिए मायाजाल का साम्यानुमान, जिसके लिए अनेक व्यक्तियों तथा वस्तुओं की जरूरत होती है, एक तर्क दोष है, इस प्रयोजन के लिए वह बिल्कुल अनुपयुक्त है ।

‘स्वप्न’ का साम्यानुमान

पुनश्च शंकराचार्य ने स्वप्न का उदाहरण देकर दृढ़तापूर्वक यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि इस जगत् में, जिसमें असंख्य मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े और भौतिक वस्तुएँ हैं, उनकी कोई वास्तविकता नहीं है । वह केवल वास्तविक दिखाई देती है, यद्यपि सत्य तो यह है कि वह वास्तविक नहीं है ।

शंकराचार्य और उनके अनुयायी अन्य विद्वानों का जगत् विषयक इस विचार का खण्डनात्मक विधि से मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए जगदीश चन्द्र अभिधान करते हैं कि स्वप्न, जागृत अवस्था में देखी गई वस्तुओं पर निर्भर है क्योंकि जिन वस्तुओं और व्यक्तियों को हम स्वप्न में देखते हैं उन्हें हम भूतकाल में, बाह्य जगत् में, किसी समय देख चुके होते हैं, भले ही स्वप्नों में हम जो देखते हैं वह उन वस्तुओं और व्यक्तियों का विशृंखलित और अजीब संयोजन होता है । उदाहरणार्थ, हम यह देख सकते हैं कि एक गाय चन्द्र की ओर उड़ रही है या एक तश्तरी चम्मच सहित भाग रही है । स्पष्ट है कि हमने बाह्य जगत् में गाय भी देखी हऔर चन्द्र भी देखा है और हमने पक्षियों या पतंगों जैसी कई वस्तुओं को आकाश में उड़ते हुए भी देखा है और हमने इन स्मृतियों, प्रभावों को चन्द्र की ओर उड़ती हुई एक गाय में संयोजित कर दिया है । इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि किसी बहन को भाई के साथ भागते हुए देखा और तश्तरी तथा चम्मच को भी देखा है, और अब हमारे स्वप्न में ये स्मृतियाँ एक विरूपित या विकृत ढंग से संयुक्त हो जाती हैं इसलिए हम किसी तश्तरी को चम्मच के साथ भागते हुए देखते हैं । निःसन्देह, यह एक अति कल्पना है किन्तु स्वप्न में हम जिन वस्तुओं और व्यक्तियों को देखते हैं वे बाह्य जगत् में वास्तविक हैं, जिन्हें हमने अपनी इन्द्रियों से देखा था । अतः बाह्य जगत् अवास्तविक है और एक स्वप्न जैसा है, कहने के बजाय यह कहना उचित है कि स्वप्न लोक में हम जिन वस्तुओं को देखते हैं उनका बाह्य जगत् में वास्तविक अस्तित्व है ।

पुनश्च कोई स्वप्न किसी स्वप्न देखने वाले व्यक्ति द्वारा देखा जाता है । चूँकि शंकराचार्य के अनुसार, केवल ईश्वर के सिवाए, किसी का भी वास्तविक अस्तित्व नहीं है जिसे वे ब्रह्म कहते हैं, तो ईश्वर या ब्रह्म ही जगत् को अपने स्वप्न में देखता है । चूँकि स्वप्न स्मृति के परिणाम स्वरूप उद्भासित होते हैं और स्मृति बाह्य जगत् में वस्तुओं को देखने से बनती है, इसलिए इसका अर्थ यह है कि बाह्य जगत् विद्यमान है, जिसे कि ईश्वर या ब्रह्म ने देखा है और उसके पास उसकी वस्तुओं के स्मृति-चिह्न हैं । यदि बाह्य जगत् विद्यमान नहीं होता तो स्वप्न नहीं होते, क्योंकि स्मृति-चिह्न नहीं होते । इसलिए शंकराचार्य द्वारा प्रयुक्त स्वप्न के साम्यानुमान से यह प्रमाणित होता है कि जगत् विद्यमान है ।

इसके अतिरिक्त, यह कहना कि ईश्वर या ब्रह्म स्वप्न देखता है, ईश्वर के प्रति समीचीन कथन नहीं है । यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि ईश्वर स्वप्न देखता है तो वह ईश्वर की महिमा को नहीं बढ़ाता क्योंकि स्वप्न केवल स्वप्न देखने वाले की किन्हीं अपूर्णताओं, किन्हीं दबी हुई इच्छाओं, किन्हीं छिपी हुई भावनाओं या किन्हीं अनभिव्यक्त विचारों को प्रदर्शित करते हैं । यदि ईश्वर (ब्रह्म) सत्यम्, ज्ञानम्, अनन्तम् है तो एक परिपूर्ण सत्ता होने के कारण उसे स्वप्न नहीं दिखाई दे सकते । इसलिए यह विश्वास कि ईश्वर या ब्रह्म अनन्त है और उससे भिन्न वस्तुएँ या व्यक्ति अविद्यमान है और किसी स्वप्न में देखी गई वस्तुओं की भाँति है- एक गलत प्राक्कल्पना पर आधारित है ।

ब्र.कु. जगदीश चन्द्र पुनः कथन करते हैं कि स्वप्न देखना भी मन की एक वास्तविक अवस्था है । वस्तुओं को स्वप्न में देखना और वस्तुओं की अविद्यमानता एक ही बात नहीं है । स्वप्न की अवस्था वस्तुतः जागृत अवस्था के अस्तित्व को सिद्ध करती है और जागृत अवस्था वस्तुओं और व्यक्तिओं की विद्यमानता को सिद्ध करती है । स्वप्नों के निर्देश मात्र हम में जागृत अवस्था की ओर उसके साथ ही बाह्य वस्तुओं की जागरूकता पैदा कर देते हैं ।

वस्तुतः स्वयं शंकराचार्य ने अपने काल की बौद्ध विचारधारा का विरोध करते हुए स्वप्न और जागृत प्रेक्षण की अवस्था के बीच भेद बताया था । इस बारे में उन्होंने स्पष्टतः कहा है - वस्तुतः स्मृति ही इन स्वप्नों को जन्म देती है, जिन्हें मनुष्य देखता है । जागृत अवस्था में मनुष्य उन वस्तुओं को देखता है जो कि उसकी इन्द्रियों के सम्पर्क में आती हैं । स्वप्नों और जागृत प्रेक्षणों में एक स्पष्ट विभेद है । स्वप्न वस्तुओं के बिना उद्भूत होते हैं जबकि जागृत प्रेक्षण में वस्तुएँ होती हैं । स्वप्न में “मैं अपने इच्छित पुत्र को याद करता हूँ, किन्तु उसे पाता नहीं, मैं सहज उसे पाना चाहता हूँ” । किन्तु जाग्रत प्रेक्षणों में, वस्तुएँ विद्यमान होती हैं, इसलिए इस सम्बन्ध में जाग्रत प्रेक्षणों को स्वप्नों की भाँति अवास्तविक कहना संभव नहीं है । दोनों के बीच के भेद का स्पष्टतः अनुभव होता है ।

इसके अतिरिक्त स्वप्न वैसा नहीं है जैसा कि भ्रम है । दोनों में विशाल अन्तर है । भ्रम तब होता है जब कोई व्यक्ति जागृत अवस्था में अपनी इन्द्रियों से कतिपय वस्तुएँ देखता है और सही तथा सच्ची झांकी पाने के बजाए विकृत प्रतिमा पाता है या वास्तविक से भिन्न कोई वस्तु देखता है क्योंकि बाह्य परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि वे देखी गई वस्तुओं के बारे में अज्ञानता उत्पन्न कर देती हैं या दोषपूर्ण प्रत्यक्ष होता है या त्रुटिपूर्ण प्रस्तुतीकरण होता है । इसलिए स्वप्न और भ्रम को समान मानना और यह कह देना गलत है कि बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व किसी स्वप्न में या किसी भ्रम में दिखाई देने वाले उसके अस्तित्व जैसा है ।

‘अनन्त’ शब्द का अर्थ

ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन के अभिमत को उपस्थापित करते हुए ब्र.कु. जगदीश चन्द्र यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि ईश्वर या ब्रह्म अनन्त है और ईश्वर या ब्रह्म के सिवाए किसी का भी वास्तविक अस्तित्व नहीं है इसे सिद्ध करने के लिए अद्वैतवादियों द्वारा किये गये सभी प्रयास उसकी पुष्टि नहीं कर पाते । यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत तर्क कि जीवात्माओं का अस्तित्व नहीं है और बहुविध भौतिक नामों और रूपों वाला जगत् भी अस्तित्व में नहीं है, बुद्धि तर्क और जीवन के दैनिक अनुभव की कसौटी पर नहीं टिकता । मात्र एक तथ्य ही कि हम भोजन करते हैं और अन्य वस्तुओं का उपयोग करते हैं तथा जीवन के कठोर, वास्तविक समस्याओं का सामना करते हैं, सिद्धान्त का खण्डन करने के लिए पर्याप्त है कि सब कुछ भ्रम है या यह जगत् एक स्वप्न है या मात्र आभास या प्रतीति है । आध्यात्मिक प्रयासों या उन्नति के दृष्टिकोण से भी यह सिद्धान्त का कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि जैसा कि उन पर उद्धृत किया गया है, शंकराचार्य ने कहा है कि न तो कोई बन्धन है और न कोई आध्यात्मिक प्रयास है और न कोई बन्धन में है । इसलिए अद्वैतवाद को कोई तार्किक समर्थन प्राप्त नहीं है और न किसी योगी के लिए वह उपयोगी है । इस विश्वास ने कि जगत् विद्यमान नहीं है, निष्क्रियता और पलायनवाद को जन्म दिया है । जगत् का अस्तित्व वास्तवतः है एवं आधुनिक विज्ञान इसे पूर्णतया परिपुष्ट करता है । आचार्य शंकर ने पारमार्थिक दृष्टि से इसको मिथ्या प्रमाणित किया है क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य ब्रह्मानुभूति से है । परन्तु व्यावहारिक एवं पारमार्थिक के मध्य भी कुछ सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए । वास्तवतः शाश्वत भौतिक ऊर्जा से बने अल्पकालिक और अस्थायी जगत् में विश्वास, जगत् विषयक एक वास्तविक दृष्टिकोण प्रदान करता है ।

उपसंहार

अद्वैतवेदान्तीय उपर्युक्त गंभीर विश्लेषणात्मक व समीक्षणात्मक अनुशीलन से यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि अद्वैतवेदान्त दर्शन ने दार्शनिक जगत् में एक विशिष्ट अथवा उच्च कोटि का स्थान प्राप्त किया हुआ है, परन्तु इस दर्शन द्वारा प्रयुक्त जगत् सम्बन्धी दृष्टान्त उसकी विषय-वस्तु को यथार्थतया प्रमाणित करने में अनुपयुक्तता को प्रदर्शित कर रहे हैं । क्योंकि ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन के मत को उपस्थापित करते हुए ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने वैज्ञानिक व व्यावहारिक ज्ञान को आधार बनाकर शांकरवेदान्तीय जागतिक दृष्टिकोण का एक गंभीर तार्किक विश्लेषण कर अनेक न्यूनताओं को प्रकटित कर दिया है । व्यावहारिक दृष्टि से भी जगत् का अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध है, यद्यपि इस संसार में सूक्ष्म पारमाणविक रीति से अथवा स्थूल रीति से अनेक परिवर्तन निरन्तर हो रहे हैं । यदि जगत् की अविद्यमानता को प्रदर्शित करने का प्रयत्न कोई करता है तो निश्चित रूप से वह स्वयं अपनी अवस्थिति को इस भौतिक जगत् में अस्वीकार कर रहा है । वस्तुतः ब्रह्म अथवा ईश्वर चैतन्य सत्ता का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है तो शाश्वत ऊर्जामय जड़ पदार्थ से निर्मित जगत् भी ईश्वर-समतुल्य स्वयंसिद्ध है । दोनों सत्ताएँ सत्य हैं एवं समानान्तरता में अवस्थान करती हैं । अतः मनुष्य स्वयं को एक चैतन्य शक्ति आत्मा समझकर, फिर शरीर रूपी प्रकॄति का उपयोग कर इस जगत् में यथापयोगी कर्म संपादित करना- जगत् के प्रति समुचित दृष्टिकोण प्रदान करता है । अतः किसी भी तात्त्विक विषय के कथन को दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृष्टि का पुट देते हुए उसका तर्कसम्मत व स्वीकृत विवेचन प्रस्तुत करने में ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन अथवा अध्यात्म-विज्ञान एक निष्कर्षभूत प्रमाण सिद्ध होता है ।

सन्दर्भग्रन्थसूची

1. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, पुनर्मुद्रण
2. माण्डूक्यकारिका (गौड़पादकारिका), भाष्यसहित, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000
3. ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य-रत्नप्रभा, भाषानुवाद सहित, प्रथम व द्वितीय भाग, भोलेबाबा, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, 2004
4. वेदान्तसार, सदानन्द योगीन्द्र, अनु. सत्यनारायण श्रीवास्तव, सुदर्शन प्रकाशन, इलाहाबाद, 2000, पुनर्मुद्रण
5. एकादशोपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, 1998
6. धर्म, कर्म और विज्ञान, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, पाण्डव भवन, आबू पर्वत, राजस्थान, पुनर्मुद्रण
7. भारतीय दर्शन : आलोचना और अनुशीलन, चन्द्रधर शर्मा, मोतीलाल बनरसीदास, दिल्ली, 2004, पुनर्मुद्रण

Friday, March 15, 2013

अभौतिक ऊर्जा ‘आत्मा’ का पुनर्जन्म एवं आनुवंशिकता तन्त्र
(ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन के विशेष सन्दर्भ में)


अभौतिक ऊर्जा ‘आत्मा’ की शाश्वतता अथवा अमरता भारतीय धर्म-दर्शन में प्रायतः सर्वस्वीकृत है । परन्तु अविनाशी आत्मा किस आधार से मनुष्य-देह को प्राप्त कर जन्म-मृत्यु के चक्र में संचरण करती है? इस ज्ञातव्य विषय पर ब्रह्माकुमारी आध्यात्मिक संस्थान द्वारा उद्घाटित कुछ अनुभवयुक्त व तर्कसंगत मन्तव्यों का निदर्शन प्राप्त होता है जिसमें आधुनिक जीवविज्ञान सम्बन्धी मुख्य तथ्यों का संयोजन किया गया है । फलस्वरूपतः सूक्ष्म रीति से विषयवस्तु के ऊपर प्रकाश डाल कर उसकी महत्वपूर्ण प्रासंगिकता को निर्देशित करने का एक समुचित प्रयास किया गया है । प्रस्तुत लेख ब्रह्माकुमारीज़ की दृष्टि में आध्यात्मिक शक्ति आत्मा के पुनर्जन्म तथा आनुवंशिकता सिद्धान्त सम्बन्धी विमर्शों का एक विशेष अनुशीलन है ।

ब्रह्माकुमारी आध्यात्मिक विज्ञान प्रतिपादन करता है कि ज्योतिर्विन्दुस्वरूप निराकारी ‘आत्मा’ मूलतः अपने मूल विश्राम गृह परमधाम वा ब्रह्मलोक में निवास करती है । किन्तु जब वह अपनी भूमिका का निर्वहन करने के लिए इस विश्व-नाटक मंच या सृष्टि पर अवतरित होती है, तब ‘जीवात्मा’ नाम से अभिहित होती है । यद्यपि अशरीरी आत्मा निराकारी, शाश्वत, अविनाशी व अजन्मा है, किन्तु देह-धारण करने से उसका जन्म के रूप में सूचित किया जाता है । किसी आत्मा को किसी विशेष परिवार में, विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और प्राकृतिक वातावरण में कोई विशेष शरीर उसके कर्मों तथा संस्कारों के आधार पर प्राप्त होता है । जीवात्मा (अथवा मनुष्य) नये प्रयास द्वारा नये लक्षण प्राप्त कर सकती है तथा पुराने संस्कारों का परिवर्तन भी कर सकती है ।

जीव-विज्ञानी मानव देह के जन्म की व्याख्या पुरुष तथा स्त्री की जनन-कोशिकाओं (Germ cells) के समेल और आनुवंशिकता के आधार पर करते हैं । किन्तु विचारपूर्वक निर्णय करने पर अवज्ञात होता है कि ये नियम तथा आनुवंशिक कूटों का ज्ञान उक्त तथ्य को स्पष्ट करने के लिए अपर्याप्त है क्योंकि लाखों संभव मिलनों में से कोई विशेष समेल ही फलदायक क्यों होता है? जिसके उत्तर में ब्रह्माकुमारी संस्थान के मुख्य प्रवक्ता ब्र.कु. जगदीश चन्द्र स्वकीय मत व्यक्त करते हुए कथन करते हैं- मनुष्य के जन्म की व्याख्या कर्मों के नियमों तथा आत्मा के अस्तित्व के नियम के अनुसार एवं पुनर्जन्म के आधार पर अधिक अच्छी रीति से की जा सकती है ।

प्रत्येक शिशु एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक गठन के साथ जन्म लेता है जो दूसरे शिशु से भिन्न होता है । आधुनिक जीव-विज्ञानी के मतानुसार व्यक्तिओं के बीच शारीरिक गठन और मानसिक योग्यताओं में अन्तर दो कारकों से संघटित होता है, 1.‘आनुवंशिकता' तथा 2.‘पर्यावरण’ । उनके अनुसंधान के कार्य से निष्कर्ष रूप में यह बात प्रकटित होती है कि कुछ योग्यतायें तथा विशेषतायें प्रशिक्षण के जरिए या पर्यावरण से अर्जित की जा सकती हैं ।

किन्तु इस सन्दर्भ में ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र ब्रह्माकुमारी दर्शन का मत उल्लेख करते हुए कहते हैं- यद्यपि व्यक्ति का कुल विकास उसकी जन्मजात संभाव्यताओं तथा पर्यावरणात्मक स्थितियों की परस्पर क्रिया का शुद्ध परिणाम हैं, तथापि उसका जन्मजात तथा सहज स्वभाव एवं उसकी अन्तर्निहित शक्तियाँ अभिभावी शक्तियाँ हैं । पर्यावरण निःसन्देह एक महत्वपूर्ण कारक है, किन्तु वह आधारभूत कारक नहीं है । पर्यावरणात्मक स्थितियाँ मनुष्य की वृद्धि की प्रक्रिया में केवल सहायक हो सकती हैं या बाधक हो सकती हैं । वर्तमान समय अधिकांश वैज्ञानिक इस विषय में सहमत हैं कि इन दो अवधारक कारकों में से आनुवंशिकता आधारभूत कारक है ।

इस विषय में जीव-विज्ञानी डॉ. ई.जी. कोंक्लीन (E.G. Conklin) क मत उल्लेखनीय है- “निःसन्देह, विकास के कारक या कारण केवल जनन-कोशिकाओं में ही नहीं पाये जाते, बल्कि पर्यावरण में भी पाये जाते हैं; न केवल भीतरी शक्तियों में बल्कि बाहरी शक्तियों में भी पाये जाते हैं । किन्तु यह बात भी उतनी ही निश्चित है कि विकास के निर्देशी कारक तथा मार्गदर्शी कारक मुख्यतः आन्तरिक होते हैं और जनन-कोशिकाओं के संगठन में उपस्थित होते हैं, जबकि पर्यावरणात्मक कारक विकास पर मुख्यतः एक उद्दीपक, अवरोधक या उपान्तरकारी प्रभाव डालते हैं ।”

निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा ब्र.कु. जगदीश पूर्वोक्त कथन का और अधिक स्पष्टीकरण प्रदान करते हुए अपने विचार प्रकट कर रहे हैं-

i. मनुष्य अपने वातावरण का चयन कर सकता है, किन्तु उसका सहज स्वभाव वही होता है जो पूर्व में विद्यमान है । इसके अतिरिक्त बहुधा मनुष्य अपने पर्यावरण का चयन अपनी सहज प्रवृत्तियों के अनुसार करता है ।

ii. यद्यपि मनुष्य अपनी पसन्द के अनुरूप अपने वातावरण का चयन न कर सके फिर भी वह उसमें बहुत परिवर्तन कर सकता है एवं पर्यावरणात्मक स्थितियों को उपान्तरित कर सकता है ।

iii. यदि मनुष्य पर्यावरण की कतिपय स्थितियों को उपान्तरित न कर सका तो वह उनसे अपनी रक्षा कर सकता है या उनका उपयोग अपने सर्वोत्तम लाभ के लिए कर सकता है ।

iv. मानव अपनी मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षमताओं को इतना अधिक विकसित कर सकता है कि वह पर्यावरणात्मक स्थितियों से ऊपर उठ सकता है या उन्हें अपने अधीन कर सकता है । उदाहरणार्थ, कोई योगी अपने भीतर की मानसिक योग्यताओं तथा आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को इस तरह विकसित करता है कि वे उसे पर्यावरणात्मक स्थितियों से अप्रभावित रहने में सहायता पहुँचाती है ।

अतः मानव के विकास का अवधारण करने वाले कारकों में से आनुवंशिकता एक आधारभूत कारक है । अधुना आधुनिक जीव-विज्ञान द्वारा प्रतिपादित आनुवंशिकता के जनन सिद्धान्त के आधार पर मानव अथवा जीवात्मा की पुनर्जन्म रूपी समस्या की व्याख्या आध्यात्मिक सिद्धान्त की अपेक्षा बेहतर ढंग से की जा सकती है? तत्सहित एक सर्वस्वीकरणीय तथ्य प्रदान किया जा सकता है? इस विषय पर ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान के अभिमतों का तुलनात्मक विधि से विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है ।

 आनुवंशिकता का जनन-सिद्धान्त

आधुनिक जीव-विज्ञान के अनुसार, अन्य बहुकोशिकीय जीवित वस्तुओं की तरह मानव-शरीर असंख्य सूक्ष्म कोशिकाओं से गठित है तथा प्रत्येक कोशिका एक लघु जीव(Organism) है जिसे जीवन की एक मूलभूत इकाई समझा जाता है । नई कोशिकायें पुरानी विद्यमान कोशिकाओं के विभाजन से अस्तित्व में आती हैं एवं इसी प्रकार से नवजात शिशु बढ़कर किशोर और किशोर वृद्धि का पाकर वयस्क व्यक्ति बन जाता है । देह-कोशिकायें साधारण होती हैं जिनमें जनन की योग्यता होती है तथा वे जनन की क्रिया संपादित करती हैं । पुरुष के देह में स्थित जनन-कोशिका को ‘शुक्राणु’ (Sperm) एवं स्त्री के देह में विद्यमान जनन-कोशिका को ‘अण्डाणु’ (Ovum) कहा जाता है । दोनों कोशिकाओं का सामान्य नाम ‘युग्मक’ (Gamete) है । प्रत्येक जनन-कोशिका में अर्थात् युग्मक में धागे की आकृति वाली सत्तायें होती हैं जिसे ‘गुणसूत्र’ (Chromosomes) कहा जाता है । मानव प्रजाति की प्रत्येक जनन-कोशिका या युग्मक में गुणसूत्रों के 23 युगल होते हैं । इन गुणसूत्रों पर ‘जीन’ (Gene) कहलाने वाली उपादान इकाइयाँ (Material units) स्थित होती हैं । जीव-विज्ञानियों के मतानुसार इनमें से प्रत्येक जीन बालों तथा आँखों के रंग जैसी कतिपय विशेषतायें प्रेषित करने के लिए उत्तरदायी हैं जो शुक्राणु तथा अण्डाणु के मेल से जन्मे नये व्यक्ति को वंशागत रूप में प्राप्त होती हैं । पुनः जीव-विज्ञानी प्रतिपादित करते हैं कि रंग, आकृति, आकार आदि जैसे गुण या लक्षण जीनों या जन-कोशिकाओं में उपस्थित नहीं होते, बल्कि एक आयोजना जैसी कोई वस्तु उनमें ‘कूटबद्ध’ होती है जो नये, आने वाले व्यक्ति में उत्पन्न करने में सक्षम होती है । उसको ‘आनुवंशिक कूट’ (Genetic code) नाम से जाना जाता है ।

जीव-विज्ञानी व्याख्या करते हैं- जब कोई पुरुष तथा कोई स्त्री जनन के लिए शारीरिक रूप से एक हो जाते हैं तब पुरुष स्त्री में लाखों शुक्राणु निक्षेपित करता है । संयोगवश एक शुक्राणु एक अण्डाणु से मिलता है और शुक्राणु अण्डाणु से मिलकर एक नई कोशिका का निर्माण करता है जो ‘संसेचित अण्डा’ (Zygote) कहलाती है । यथा समय यह व्यक्ति के देह के रूप में विकसित होता है एवं इस प्रकार पुरुष की जनन-कोशिका तथा स्त्री की जनन-कोशिका के नाभिकों के मिलन से उत्पन्न संसेचित (Zygote) किसी व्यक्ति के जैव-भौतिक अस्तित्व का आरम्भ-बिन्दु होता है । यह एकल कोशिका सूक्ष्म होती है, किन्तु संभाव्य जैव-भौतिक इकाई होती है । वह अत्यन्त सूक्ष्म होती है, अतः माइक्रोस्कोप के माध्यम से ही उसको देखा जा सकता है तथा उसकी शक्ति अद्भुत होती है ।

शुक्राणु तथा अण्डाणु के मेल से निर्मित ‘संसेचित अंडे’ में पिता से आये 23 गुणसूत्र तथा माता से आये 23 गुणसूत्र अन्तर्विष्ट होते हैं । जीन जो माता-पिता दोनों की ही आनुवंशिक इकाइयाँ हैं, उनके भीतर स्थित होते हैं । वस्तुतः शिशु तथा उसके माता-पिता या पूर्वजों के बीच एकमात्र कड़ी यह आनुवंशिक सामग्री है । एडमण्ड सिनॉट (Edmund W. Sinnot) एवं अन्य जीव-विज्ञानी अपनी-अपनी पुस्तक में इसके बारे में उल्लिखित करते हैं- “जो एकमात्र भौतिक वस्तुयें कोई व्यक्ति अपने माता-पिता से वंशागत रूप में पाता है वे ‘जीन’ हैं, जो अण्डाणु तथा शुक्राणु कोशिकाओं में रहते हैं जिनसे इस देह की उत्पत्ति होती है ।” वस्तुतः अण्डाणु तथा शुक्राणु के नाभिक जनन पदार्थ के छोटे-छोटे पैकेट, जिनमें इतनाकुछ भरा हुआ होता है और जिनमें से इतना कुछ निर्गमित होता है- विद्यमान जीवित पदार्थ के अत्यन्त उल्लेखनीय खण्ड है । इसलिए आधुनिक जीव-विज्ञान के अनुसार माता-पिता के शारीरिक तथा मानसिक लक्षण जनन-आनुवंशिकता की प्रक्रिया के जरिए सन्तान को प्रेषित किये जाये हैं । किन्तु इससे पूर्णतया निष्कर्ष प्राप्त नहीं होता है ।

अतः अध्यात्मवादी ब्र.कु. जगदीश चन्द्र ब्रह्माकुमारीज़ का मत उल्लिखित करते हुए अभिधान करते हैं कि आध्यात्मिक दर्शन मानव-जनन की प्रक्रिया की जीव-विज्ञानीय व्याख्या का वहाँ तक खंडन नहीं करता जहाँ तक कि संतान के स्थूल भौतिक देह का सम्बन्ध है । किन्तु अध्यात्म का मुख्य तर्क यह है कि आनुवंशिकता का सिद्धान्त किन्हीं भी दो व्यक्तियों की प्रवृत्तियों आदि में पाई जाने वाली भिन्नताओं की व्याख्या नहीं करता । यदि कोई व्यक्ति केवल या मुख्यतः एक देह होता तब जनन-कोशिकाओं के जरिए माता-पिता के भौतिक कणों का अन्तरण उसकी उत्पत्ति की कोई सन्तोषजनक व्याख्या दे सकता था । किन्तु देह से अधिक महत्वपूर्ण है व्यक्ति का ‘मन’ या ‘स्व’ या ‘आत्मा’ । पुनः ‘मन’ या ‘स्व’ कोई वंशागत भौतिक संपत्ति नहीं है अपितु उसका स्वयं का अपना अस्तित्व है ।

आनुवंशिकता के जैविकीय नियमानुसार “जैसे माता-पिता हैं वैसे ही शिशु होंगें” । किन्तु “साधारण बुद्धि वाले माता-पिता किसी विलक्षण प्रतिभाशाली शिशु को जन्म देना” आदि घटना का आनुवंशिकता के सिद्धान्त के आधार पर कोई भी जीव-विज्ञानी वैज्ञानिक दृष्टि से तथा समाधान कारक रूप में समुचित विश्लेषण नहीं कर सकता । जीव-विज्ञानी ज्यूलियन हक्सले (Julian Huxley) तथा वैज्ञानिक दोब्जान्स्की (Dobzhansky) आदि अपने-अपने मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि साधारण बुद्धि वाले माता-पिता के शिशु का प्रतिभाशाली होना एक संयोग है । अन्यपक्षतः वैज्ञानिक मत व्यक्त करते हैं कि इसका नियन्त्रण ‘कारण और कार्य’ के नियम अनुसार होता है ।

ब्रह्माकुमारी आध्यात्मिक विज्ञान इस सन्दर्भ में प्रतिपादन करता है कि कारण-कार्य का नियम मानवीय स्तर पर एक नैतिक नियम के रूप में लागू होता है जो ‘कर्म सिद्धान्त’ कहलाता है । पुनर्जन्म का सिद्धान्त जो किसी व्यक्ति के पुनर्जन्म का विनियमन करता है, कर्म के सिद्धान्त पर आधारित है । पुनश्च प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ अपने मन को लाता है तथा आनुवंशिकता का सिद्धान्त केवल किसी व्यक्ति के जैव-भौतिक गठन पर ही लागू होता है । ब्र.कु. आध्यात्मिक दर्शन यह बताता है कि किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति की असाधारण योग्यतायें युग्मक (Gametes) के सांयोगिक मिलन के कारण और आनुवंशिकता के कारण नहीं होती, बल्कि ‘स्व’ या ‘आत्मा’ के पूर्वतर जन्मों में अर्जित तथा संवर्धित की गई होती हैं । ब्रह्माकुमार जगदीश अनेक तर्कयुक्त तथ्य प्रस्तुत कर आध्यात्मिक विज्ञान के मत को पोषित करते हुए अभिलिखित करते हैं- ‘स्व’ या ‘मन’ या ‘आत्मा’ जो अभिवृत्तियों, रुचियों तथा मानसिक योग्यताओं का आधान या वाहन है, जैव-भौतिक रासायनिक सत्ता से भिन्न है और वह वह गैमीटों या अण्डाणु और शुक्राणु के मिलन से पहले भी अस्तित्व में रहा है और इसलिए वह माता-पिता से वंशागत रूप में प्राप्त नहीं होता ।

अतः मानसिक लक्षण जो एक व्यक्ति और किसी अन्य व्यक्ति के बीच में आधारभूत अन्तर के कारण होते हैं, माता-पिता से प्राप्त नहीं होते । इसी कारण से शिशुओं के मानसिक लक्षण उनके माता-पिता के लक्षणों से भिन्न होते हैं । यहाँ तक कि जुड़वाँ शिशु भी, जहाँ तक उनके मानसिक लक्षणों का सम्बन्ध है, एक-दूसरे से और माता-पिता से भिन्न होते हैं । इसका कारण यह है कि पुनर्जन्म के अनुसार यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की भौतिक विशेषतायें आनुवंशिक होती हैं, तथापि वह अपना स्वयं का मन अपने साथ लाता है । पुनश्च भौतिक विशेषतायें भी पूर्णतः माता-पिता से व्युत्पन्न नहीं होतीं । वस्तुतः उनके मूल उनके पूर्वजन्मों में खोजे जा सकते हैं । लाखों शुक्राणुओं में से कौन-सा शुक्राणु अण्डाणु को संसेचित करेगा- यह बात इस कारक पर निर्भर होती है । कौन-से जीन अन्ततः एकत्रित होकर निर्माण कारकों के रूप में कार्य करेंगे - यह बात व्यक्ति के पूर्व कर्मों पर निर्भर होती है । इसलिए मानव-प्राणी का जन्म शुक्राणुओं तथा अण्डाणुओं के रूप में भौतिक संघटकों के सांयोगिक मिलन से होता है, कहना सर्वथा असिद्ध है ।

एतद्व्यतिरिक्त, किन भौतिक लक्षणों को वह अपने माता-पिता से प्राप्त करता है, वे उन असंख्य संभावनाओं में से होते हैं जो उसके कर्म के परिणामस्वरूप उसे प्राप्त होती हैं । अतः अन्तर्विवेकशील सत्ता अर्थात् ‘आत्मा’ को अन्तर्भुक्त किये बिना व्यक्तिगत भिन्नता की व्याख्या नहीं की जा सकती । निश्चिततया भौतिक विकास की एक आयोजना भ्रूण में अन्तर्निहित होती है, किन्तु इस विशिष्ट संदर्भ में कौन-सी आयोजना निष्पादित की जाती है यह बात उस व्यक्ति (आत्मा) के पूर्व कर्म पर निर्भर करती है जिसके लिए देह अभिप्रेत है । उसका अस्तित्व देह के अस्तित्व से पूर्ववर्ती होता है । इसलिए अन्तर्विवेकशील सत्ता के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति स्वतः यह जानता है कि वह विद्यमान है अर्थात् वह अपने अस्तित्व के प्रति अभिज्ञ होता है । उसका अस्तित्व स्वतः स्पष्ट है क्योंकि यही ‘आत्मा’ सत्ता देह के अस्तित्व को भी जानती है ।

इसलिए ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार जब आत्मा अपने मूल निवास स्थान ‘ब्रह्मलोक’ से इस भौतिक जगत् पर अवतरित होकर शरीर के माध्यम से कर्म करती है, तब जीवात्मा बनकर कर्मानुरूप सुख-दुःखात्मक फल का उपभोग करती है । अर्थात् सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था में सत्त्वगुणसंपन्न आत्मा संपूर्ण सुख-शान्ति का अनुभव करती है, किन्तु जब वह पंचभूतात्मक शरीर (प्रकृति/पदार्थ) के साथ तादात्म्य स्थापित कर आत्म-अभिमानी स्थिति से विच्युत होकर देह-अभिमानी बन जाती है तब उसके सत्त्वगुणी संस्कार क्षयीभूत होकर क्रमशः रजोगुणी तथा तमोगुणी संस्कार प्रादुर्भूत हो जाते हैं । जीवात्मा सर्वाधिक 84 जन्म ही ग्रहण कर सकती है एवं मनुष्य की आत्मा सर्वदा मनुष्य के रूप में ही जन्म लेती है, न कि अन्य पशु-पक्षी आदि अन्य निकृष्ट योनियों के रूप में । मनुष्य अपने द्वारा किये गये सत्कर्म या विकर्म के परिणाम-स्वरूप मनुष्य जन्म में ही शारीरिक स्थिति व परिवार प्राप्त करता है तथा सुख-दुःख का अनुभव भी करता है । इसलिए आत्मा कदापि निर्लिप्त नहीं रहती है । आत्मा ही विषयी या अनुभवकर्ता है जो शरीर-रूपी विषय, उपकरण या साधन के जरिए भौतिक वस्तुओं का उपभोग करती है ।

इस प्रकार वैज्ञानिक तथ्य तथा व्यावहारिकता को सम्मिलित करते हुए एक नवीन दृष्टिकोण के साथ ब्रह्माकुमारी अध्यात्म दर्शन अपना आध्यात्मिक मन्तव्य व्यक्त करते हुए सयुक्तिक यह पुष्ट करने का प्रयत्न करता है कि मनुष्य जो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, अपने जन्म की वास्तविक संरचना के रूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने से ही तदनुसार संसार रूपी कर्मक्षेत्र में स्वकीय समुचित योगदान प्रस्तुत कर सकता है । ब्रह्माकुमारी दर्शन का यह एक अमूल्य सिद्धान्त है कि सम्यक् अवबोध व व्यवहार से ही श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है । अतः मानवता को उच्च स्तर तक पहुँचाना इस अध्यात्म विज्ञान का मुख्य उद्देश्य है ।

सन्दर्भग्रन्थसूची

1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण
2. Hereditary and Environment in the Development of Men, Edwin Grant Conklin, Princeton University Press, Princeton.
3. Science and Spirituality, B.K. Jagdish Chander, Brahmakumaris World Spiritual University, Pandav Bhawan, Mount Abu, 1988.
4. Principles of Genetics, Robert H. Tamarin, Mcgraw-Hill, 2001.
5. Julian Huxley : What dare I think, Ed. By Joseph Head and S.J Cranston, The Julian Press, Inc. New York, 1961.
6. The Biology of Ultimate Concern, Theodosius Dobzhansky.
7. Do you know your Real Self, B.K. Jagdish Chander, Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Pandav Bhawan, Mount Abu, Rajasthan, 1994.
8. Mysteries of the Universe, B.K Nityanand Nair, Prajapita Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Mount Abu, 2008.
9. Life beyond Death, Swami Abhedanand, Rama Krishna Vedanta Math, Calcutta, 1971.
10. श्रीमद्भगवद्गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000
11. ज्ञान-प्रवाह, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2000, द्वितीय संस्करण
12. साप्ताहिक पाठ्यक्रम, संपा. ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र, साहित्य विभाग, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, पाण्डव भवन, माउण्ट आबू, राजस्थान
13. गीताबोधित आत्म-साक्षात्कार और व्यवहार शास्त्र, ब्रह्माकुमार बसवराज राजऋषि, साहित्य विभाग, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, हुबली
14. Microbiology - A human perspective, Eugene W. Nester and others, McGraw Hill, New York, 3rd edition.
15. Gene Cloning and DNA Analysis : An Introduction, T.A. Brown, Blackwell Science Ltd, Oxford, U.K, 4th edition.

आध्यात्मिक ऊर्जा (आत्मा) की आन्तरिक संरचना
(ब्रह्माकुमारीज़ सूक्ष्म-दृष्टिकोण)


संसार में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का परिप्रकाश निरन्तर होता रहा है । मनुष्य अपने बुद्धि-कौशल का यथासंभव उपयोग कर तथ्य प्रदान करने में दक्षता हासिल की है । परन्तु स्वयं का यथार्थ परिचय क्या है? इस विषय में वह पर्याप्त रूप से सहमत नहीं है । विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ मानव स्वयं से जोड़ने का तरीका शायद भूल बैठा है जिसके कारण उसको नाना प्रकार की परेशानियों को झेलना पड़ रहा है । आज के आधुनिक विज्ञान ने पदार्थ की सूक्ष्मतम स्थिति को जानने में बहुत प्रयास किया है तथा सफलता भी प्राप्त की है । परन्तु इन सब अनुसंधानों के पीछे कार्य करने वाली वो चैतन्य शक्ति कौन है? उसका स्वरूप क्या है? वो कैसे कार्य करती है?... आदि विषयों के ऊपर शायद ही किसी प्रकार का जानने का प्रयत्न किया जा रहा है ।

इस सन्दर्भ पर प्रकाश डालने हेतु प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय अपने आध्यात्मिक विज्ञान के द्वारा स्वकीय अभिमत प्रकट करता है । इस संस्थान के मुख्य प्रवक्ता, बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व, अध्यात्मवादी राजयोगी ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने तथा अन्य अध्यात्म-विज्ञानी ब्रह्माकुमार व ब्रह्माकुमारियों ने भी स्व-स्व कृतियों व व्याख्यानों के माध्यम से वैज्ञानिक चिन्तनधारा को समन्वित कर अभौतिक ऊर्जा ‘आत्मा’ के संरचनात्मक पहलू पर मन्तव्य उपस्थापित किया है, जिसका एक संक्षिप्त अनुशीलन इस शोधलेख के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है ।

स्वरूप

ब्रह्माकुमारी आध्यात्मिक दर्शन प्रतिपादित करता है कि ‘आत्मा’ एक अभौतिक सत्ता है जो अन्तर्विवेकशील प्रकाश का एक अनन्त सूक्ष्म बिन्दु है । बिन्दु का कोई भी आयाम नहीं होने के कारण ‘आत्मा’ बिन्दु का रूप निराकार ही है । निराकारी ज्योतिर्बिन्दु-स्वरूप आत्मा में मुख्यतः ज्ञान, पवित्रता, सुख, शान्ति, प्रेम, आनन्द व शक्ति - सात गुण विद्यमान होते हैं । अतः सप्तगुणसंपन्न आत्मा स्वभावतः सत्त्वगुणप्रधान, शुद्ध व पवित्र होती है । आध्यात्मिक ऊर्जा ‘आत्मा’ के ये प्रमुख सात गुण सप्त-रंगात्मक होते हैं जो अपने स्वरूप में अभौतिक हैं एवं इनको केवल अन्तर्दृष्टि से मानसपटल पर ही देखा जा सकता है । जैसे सूर्य का प्रकाश सप्त-वर्णात्मक (VIBGYOR) होता है जो अपने स्वरूप में भौतिक है एवं इन्हें स्थूल नेत्रों के द्वारा देखा जा सकता है । अर्थात् भौतिक सात रंग क्रमशः अभौतिक सात गुणों से तुलनीय हैं ।

1. बैंगनी (Violet) - आनन्द (Bliss)
2. गाढ़ा नीला (Indigo) - ज्ञान (Knowledge)
3. नीला (Blue) - शान्ति (Peace)
4. हरा (Green) - प्रेम (Love)
5. पीला (Yellow) - सुख (Happiness)
6. नारंगी (Orange) - पवित्रता (Purity)
7. लाल (Red) - शक्ति (Power)

यह तथ्य ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान में एक अनन्य व अद्वितीय अन्वेषण है । अतः सप्तवर्णी सप्त गुणों का सामूहिक रूप श्वेत-वर्णात्मक (White-coloured) ही आध्यात्मिक प्रकाश-बिन्दु ‘आत्मा’ है ।

सूक्ष्म शक्तित्रय : मन, बुद्धि व संस्कार

ब्रह्माकुमारी दर्शन के मतानुसार चैतन्य प्रकाशमय ज्योतिर्बिन्दुस्वरूप आत्मा की तीन मुख्य सूक्ष्म शक्तियाँ हैं- मन, बुद्धि एवं संस्कार जिससे चेतना का प्रकटीकरण संभव होता है । ‘चेतना’ आत्मा का अन्तर्निहित गुण या विशेषता है जो शरीर से पूर्णतया भिन्न है । यह चेतना मस्तिष्क से भी पृथक् सत्ता है । आत्मा ‘चेतना’ के माध्यम से ही कार्य करती है, किन्तु मस्तिष्क उस चेतना को परिसीमित कर देता है । मस्तिष्क आत्मा को केवल त्रि-आयामीय वस्तुओं का अनुभव करने योग्य बना देता है, परन्तु शरीर के बहिर्भूत आत्मा अपनी चेतना-शक्ति के द्वारा सुन सकती है, सोच सकती है तथा बहु-आयामीय अनुभव अथवा अतीन्द्रिय दर्शन भी कर सकती है । अतः विचार, प्रत्यक्षण, भावना, संकल्प, स्मृति आदि अमस्तिष्कीय कार्य हैं एवं इनका सम्बन्ध केवल अन्तर्विवेकशील सत्ता आत्मा से ही है । आत्मा अपने साथ अपने विचारों, अपनी भावनाओं तथा अपने कार्यों के संस्कार ले जाती है जो सुषुप्त हो सकते हैं अथवा अभिव्यक्त हो सकते हैं ।

ब्र.कु. जगदीश चन्द्र मन-बुद्धि आदि आत्म-सम्बन्धी मन्तव्य का स्पष्ट रीति से वर्णन करने के लिए अभिधान करते हैं-
1. ‘मन’ तथा ‘बुद्धि’ स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ/प्रकृति के उत्पाद या विकसन नहीं है । वे शरीर-तन्त्र से जिनमें मस्तिष्क तथा उसके कार्य सम्मिलित हैं, भिन्न हैं ।

2. मन और बुद्धि या प्रज्ञा - सोचने, कल्पना करने, समझने, निर्णय करने, अनुभव करने आदि योग्यताओं तथा क्रियाओं के नाम हैं जो ‘आत्मा’ से सम्बन्धित हैं ।

3. आत्मा द्वारा किये गये कर्मों के अनुरूप आत्मा के संस्कारों का निर्माण होता है । जब बिन्दुरूप आत्मा एक शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण करती है तब संस्कार उसके साथ चले जाते हैं । जीनों (Genes) में केवल शरीर की वृद्धि व विकास की तथा व्यक्तित्व (आनुवंशिक लक्षण) की रूपरेखा कूटबद्ध रूप में होती है; किन्तु कोई व्यक्ति किस प्रकार के और किस गुण वाले जीन विरासत में पायेगा, यह बात आत्मा के कार्यों तथा परिणामी लक्षणों तथा प्रवृत्तियों द्वारा अर्थात् उसके पूर्वजन्मों में निर्मित संस्कार द्वारा निश्चित होती है ।

पुनश्च संवेगात्मक तथा मनोवैज्ञानिक संस्कार आत्मा से ही संबंधित होते हैं, न कि शरीर से । किन्तु कोशिकायें (Brain Cells), कतिपय ग्रन्थियाँ (Glands) तथा तन्त्रिकायें (Nerves) आत्मा के संवेगों के कारण प्रभावित हो जाती हैं और वे आत्मा के संवेगों की अभिव्यक्ति को प्रभावित करती हैं । अतः दो शाश्वत सत्तायें हैं- पदार्थ तथा आत्मा (‘मन’ आत्मा की एक शक्ति मात्र है) । पदार्थ या प्रकृति अपनी सेवायें आत्मा अर्थात् पुरुष को देती हैं क्योंकि विश्व के समस्त उपकरण किसी अन्तर्विवेकशील उपयोगकर्ता के लिए अभिप्रेत होते हैं । पुनश्च पदार्थ भविष्य को देखने या उसके लिए आयोजित करने में सक्षम नहीं होता और न ही वह अतीत पर चिन्तन करने में सक्षम होता है । क्योंकि उसमें सोचने और किसी क्रिया से परम शुभ को निस्सारित करने की योग्यता नहीं होती और न वह प्रभावों को महसूस कर सकता है । ‘मन’ तथा ‘प्रज्ञा’ कोई सूक्ष्म, आन्तरिक, भौतिक अंग नहीं हैं, बल्कि आत्मा की शक्तियों के विभिन्न नाम हैं । निम्नोक्त दृष्टान्त के माध्यम से ब्र.कु. जगदीश चन्द्र ने आत्मा की त्रिविध शक्तियों या योग्यताओं एक स्पष्ट चित्रण प्रस्तुत किया है-

उदाहरण : ‘विद्युत्’ एक प्रकार की ऊर्जा है । जब उसका उपयोग रसोई घर में कोई खाद्य पदार्थ पकाने या गर्म करने के लिए किया जाता है तो इस विद्युत् को ‘ऊष्मा’ कहा जाता है । जब विद्युत् का उपयोग रेफ्रिजरेटर में किया जाता है तब वह ‘शीतलता’ प्रदान करती है तथा बल्ब के माध्यम से ‘प्रकाश’ देती है । उपयुक्त समस्त सन्दर्भों में वही विद्युत् है, परन्तु उसका उपयोग विभिन्न प्रकार से तथा विभिन्न कार्यों के लिये किया जाता है जिसके कारण उसे शक्ति, प्रकाश, शीतलता, ऊष्मा आदि भिन्न-भिन्न संज्ञा दी जाती है ।

उसी प्रकार जब आध्यात्मिक ऊर्जा अथवा चेतना की शक्ति जो ‘आत्मा’ है, स्वयं को इच्छा, संकल्प, अभिलाषा, ध्यान, भावना या विचार के रूप में अभिव्यक्त करती है तो कहा जाता है कि हमारा ‘मन’ कार्य कर रहा है । जब वह स्वयं को समझ, तर्कना या निर्णय के रूप में अभिव्यक्त करती है तब हम कहते हैं कि हमारी ‘बुद्धि’ कार्य कर रही है और जब वह स्मरण या स्मृति के रूप में प्रकट होती है तब कहा जाता है कि हमारा ‘चित्त’ कार्य कर रहा है । तथा जब वह स्वयं के अस्तित्व व महत्व को प्रकटित करने के लिए ‘अहम्’ अथवा ‘मैं’ शब्द का प्रयोग करती हैं तब कहते हैं ‘अहंकार’ या ‘अभिमान’ कार्य कर रहा है । इसलिए ये समस्त आत्मा की चेतना की केवल विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । चैतन्य शक्ति ‘आत्मा’ द्वारा शरीर की कर्मेन्द्रियों के माध्यम से किये गये कर्म उस पर प्रभाव डालते हैं और इनसे प्रवृत्तियाँ, प्रवणताओं, दृष्टिकोण, लक्षणों, प्रेरणाओं, आवेगों का निर्माण होता है, जो आत्मा के ‘संस्कार’ कहलाते हैं ।

इसलिए ‘आत्मा’ मन-बुद्धि-संस्कार का सामूहिक रूप है । वास्तवतः आत्मा ही इन रूपों के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करती है जिनके लिए व्यावहारिक रीति से अलग-अलग नाम प्रदान किये गये हैं ।

सत्त्व-रजस्-तमस् : आत्मा के तीन गुण, न कि प्रकृति के

ब्रह्माकुमारी दर्शन यह विशेष रूप से प्रतिपादन करता है कि सत्त्व, रजस् एवं तमस् वास्तवतः प्रकृति के तीन गुण नहीं हैं, अपितु स्वयं आत्मा के ही हैं । आत्मा के गुणों के आधार से ही प्रकृति भी उसी अनुसार गुणयुक्त बनती है । प्रत्येक युग में मनुष्यात्माओं की अवस्था अथवा गुण परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही प्रकृति में भी गुण परिवर्तन होता है । आत्मा ही अपने विचारों, भावनाओं तथा कर्मों के आधार पर सत्त्वगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी कहलाती है । सत्ययुग में मनुष्यात्मा के मन, वचन, कर्म शुद्ध, सत्य व पवित्र थे इसलिए सत्त्वगुण प्रधान आत्मा थी । फलस्वरूप प्रकृति भी सत्वगुणयुक्त थी । परवर्ती युगों में आत्माओं के गुणों में क्षीणता आने के कारण प्रकृति भी क्रमशः रजोगुणी व तमोगुणी होती है । इसका एक दृष्टान्त के माध्यम से ब्र.कु. जगदीश स्पष्टीकरण करते हैं-

i. एक ही प्रकार की भूमि में गन्ना, नीम्बू और मीर्च बोये जाते हैं । यद्यपि भूमि की किस्म समान है तथापि प्रत्येक प्रकार का बीज पृथ्वी में अपने-अपने अनुसार ही परमाणु आकृष्ट करता है अथवा उसमें परिवर्तन लाता है । भूमि की मिट्टी न सारी मीठी, न खट्टी और न चटपटी । परन्तु बीज ही है जो अपने अनुसार भूमि के परमाणुओं में स्वाद-विशेष ला देता है अथवा स्वाद-विशेष ही के परमाणु अधिक मात्रा में आकृष्ट करता है । जैसे बीज जल, वायु और पृथ्वी तत्त्व को अपने अनुकूल कर लेता अथवा उसमें से अपने अनुकूल तत्त्व खींच लेता है, वैसे ही आत्मायें भी अपने ही गुणों के अनुसार प्रकृति में भी वैसा-वैसा गुण प्रधान करने के निमित्त बनती हैं ।

ii. पुनश्च अन्य एक उदाहरण द्वारा विषय को स्पष्ट किया जा रहा है । जैसे चुम्बक अपनी निकटता से लोहे में भी अपना गुण भर देता है, वैसे ही पुरुष रूप ‘आत्मा’ भी प्रकृति में अपने गुण के अनुसार ही गुणप्रधान कर देती है क्योंकि प्रकृति के गुण-परिवर्तन द्वारा ही उसे अपने गुणों का फल सुख-दुःख के रूप में भोगना होता है ।

वास्तवतः, चैतन्यशील आत्मा एक बीज के समान है जिसमें हर आवश्यक सूचना अथवा ज्ञान समाहित है जिसके माध्यम से वह स्वयं को प्रकट कर सकती है जब वह किसी मानव शरीर में प्रवेश करती है । जैसे किसी बीज को भूमि में डालते हैं, वह अपने अनुरूप एक पौधे को जन्म देता है तथा जल, प्रकाश व उर्वरक मृत्तिका के द्वारा पौधे का पोषण होता है । उसी प्रकार जब एक आत्मा भ्रूण के अन्दर में प्रवेश करती है तब मनुष्य को जीवन प्राप्त होता है । जिस क्षण आत्मा शरीर में प्रविष्ट होती है उस क्षण को ‘स्पन्दन’ नाम से अभिहित किया जाता है और इसकी सूचना भ्रूण की गर्भ में प्रथम गति से प्राप्त होती है । चैतन्य बीजरूप आत्मा अपने कर्मों एवं संस्कारों के अनुसार ही शरीर धारण करती है । संस्कार ही गुप्त वृत्तियों का, आदतों का व आचरण सम्बन्धी लक्षणों का स्वरूप ग्रहण कर लेता है ।

चेतना के अन्तर्वर्ती चक्रवत् प्रक्रिया

ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार ‘आत्मा’ की मन-बुद्धि-संस्कार रूपी तीनों शक्तियाँ एक-दूसरे से मिलकर चक्रवत् कार्य करती हैं । यह आन्तरिक चक्र है तथा एक ऐसा चक्र जो अन्तर्जगत् को बाह्य भौतिक जगत् से संयुक्त करता है । इसमें आत्मा की ऊर्जा शरीर के माध्यम से कर्म के रूप में परिवर्तित हो जाती है एवं वह कर्म पुनः संस्कार के रूप में प्रत्यावृत्त हो जाता है । अतः यह एक अन्तहीन तथा कभी न रूकने वाली प्रक्रिया है । विवेचना की दृष्टि से निम्न में प्रदर्शित किया जा रहा है-

1. मन में विचारों का समुदय होता है ।
2. विचारों में इतनी शक्ति होती है कि वह कार्य रूप में परिवर्तित हो जाते हैं ।
3. कार्य रूप में परिवर्तित होने से पहले विचार बुद्धि के समक्ष प्रकटित होता है जिसे ‘विवेक’ अथवा ‘नैतिक विवेक’ कहा जाता है ।
4. तत्पश्चात् इस पर निर्णय लिया जाता है और इसे स्वीकृत अथवा अस्वीकृत कर दिया जाता है ।
5. यदि इस विचार को स्वीकृत कर लिया जाता है तब इसे कार्य रूप प्रदान किया जाता है । (यह एक सदाकालीन विचार बन जाता है, वाणी के रूप में व्यक्त होता है अथवा कार्य रूप में प्रकट होता है ।
6. यदि विचारों को स्वीकार नहीं किया जाता है तब वह अदृश्य हो जाता है अथवा इस प्रकार का विचार उठना समाप्त हो जाता है ।
7. जब एक बार कोई कर्म कर लिया जाता है तब इसके कई प्रकार के प्रभाव परिलक्षित होते हैं ।

 इसके प्रभाव के कारण प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है ।
 यह संस्कार के निर्माण का कारक बनता है ।
 यह इसी प्रक्रिया के नये विचारों को जन्म देने का कारण बनता है ।
 यह बाह्य दुनिया को प्रति-उत्तर देने के लिए प्रेरित करता है ।
 यह आत्मा पर एक आवरण बनाता है ।
8. विचारों, कर्मों एवं शब्दों का प्रभाव एवं स्मृति अन्तर्मन अथवा चित्त में बनी रहती हैं ।
9. कर्मों एवं अनुभवों का प्रभाव स्वप्न के रूप में समक्ष आ सकता है ।
10. एक नूतन विचार मन में उत्पन्न होता है और यह चक्र चलता रहता है ।

मन में विचारों का उदय मुख्यतः निम्न कारणों से होता है-

o पाँच इन्द्रियों (देखने, सुनने, स्पर्श करने आदि ) के प्रभाव से
o संपर्क से
o स्मृति से
o बुद्धि अथवा विवेक के स्फुरण से
o मौखिक अथवा लिखित आदेश, सूचना आदि के द्वारा
o संस्कार द्वारा

मनुष्य की आत्मा अथवा मानवीय चेतना में यह अत्यन्त जटिल किन्तु मौलिक प्रक्रियायें सतत चलती रहती हैं ।

इस प्रकार अभौतिक ऊर्जा ‘आत्मा’ के सम्बन्ध में ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन एक नवीन दृष्टिकोण के साथ विचारों को दार्शनिक एवं वैज्ञानिक जगत् के समक्ष प्रकटित करता है । वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक ज्ञान को समुचिततया समावेशित कर विषय की प्रासंगिकता को सिद्ध कर सर्वजनग्राह्य मत प्रदान करने में स्वकीय महत्त्वपूर्ण योगदान प्रस्तुत करता है । मन, बुद्धि आदि सूक्ष्म अभौतिक तत्त्वों के ऊपर सूक्ष्मरीत्या प्रकाश डाल कर विवेचना करना इस अध्यात्म-विज्ञान की अमूल्य प्रामाणिकता है ।

संदर्भग्रन्थसूची

1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण
2. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान
3. ज्ञान-निधि, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, साहित्य विभाग, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, दिल्ली
4. ज्ञान-प्रवाह, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2000, द्वितीय संस्करण
5. Mysteries of the Universe, B.K Nityanand Nair, Prajapita Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Mount Abu, 2008
6. मूल्य शिक्षा एवं आध्यात्मिकता, ब्रह्माकुमारीज शैक्षणिक सोसायटी, आबू रोड, राजस्थान, 2006
7. राजयोग शिविर प्रवचनमाला, ब्रह्माकुमारी ऊषा, ब्रह्माकुमारीज ऑडियो विजुअल, शान्तिवन, आबू रोड, राजस्थान

Thursday, March 14, 2013

Ṛta and Tao : A Study


Introduction

Nature was a vital source of inspiration for the Vedic seers. The religions and the philosophic conceptions, which they have developed, were the outcome of the observation of the various physical phenomena of nature. The beauty and sublimity of these phenomena inspired the feelings which found expression in the form of beautiful lyrics, addressed to gods and goddesses. In reality, they were deeply emotional descriptions of the various phenomena of nature.

Nature is the power underlying all the phenomena of the physical world as well as inner world- the power by which all objects of the world are regulated. For the term ‘nature’, it is word ‘prakṛti’ has been used by the post Vedic philosophers and the literateurs in a conventional sense. But the Vedic seers used the term ‘Ṛta’ to convey the sense of nature. This Vedic term ‘Ṛta’ is appropriate for the totality of the physical phenomena as well as of the spiritual phenomena. This ‘Ṛta’ is called as prakṛti or nature.


Meaning of Ṛta

The term Ṛta has variously been interpreted by the ancient as well as modern scholars.
1. The Nighaṇṭu reads the words ‘Ṛtam’ and ‘Ṛtasya yoniḥ’ as synonyms of water and the former as also the synonym of satya i.e. truth.
2. Yāska in his Nirukta takes it to mean water and accordingly derives it from the root √ṛ means ‘to go’. Water is called Ṛta because it goes to all lands.
3. All the Indian commentators such as Skandasvāmin, Udgītha, Veṅkata Mādhava, Mādhava Bhaṭṭa, Sāyaṇa etc. have taken Ṛta as to mean sacrifice or water or truth.
Skandasvāmin says that though the term Ṛta isn’t read as a synonym of sacrifice in the Nighaṇṭu, yet in the vedic passages it has been frequently used in the sense of sacrifice (yajña).
4. Among the modern scholars Roth defines Ṛta as ‘order’- order in nature, order in ritual, order in human life; in short, order everywhere.
5. According to Lűders, Ṛta as truth appears as wonderful power subduing the spirits as well as material world.
6. Max Műller says that Ṛta is a straight, direct or right line and in a mere general sense the law of nature.
7. Oldenberg, Griffith etc. invariably take Ṛta as to mean ‘Cosmic Law’ or Law Eternal.

Conception of Ṛta

The Ṛgvedic seers were conscious of the fact that Ṛta as nature is the primary cause of the universe. It produces and regulates the sky, the fire, the earth etc. It was born first in the beginning of the universe. In the Ṛgveda it is stated that from tapas were born Ṛta and Satya and Rātri and then the watery fluid.

From the statement that Ṛta was born first, it is also implied that it is the most subtle wherefrom the gross or material world took its existence. Subtle regulates the material because it is omnipresent and omniscient. Due to its pervasiveness, all its different phenomena invariably observe its order. There is nothing in the universe which doesn’t obey its order.

This conception of Ṛta is borne out by the utterances of the Ṛgvedic seers themselves. They frequently call that gods are the followers of Ṛta. They are described as born of Ṛta. Agni is born of Ṛta (R.V. I.189.6); Sun is born of Ṛta (R.V. IV.40.5); Bṛhaspati is born of Ṛta (R.V. II.23.15); Maruts are born of Ṛta (R.V. III.54.13); Usas are born of Ṛta (R.V. I.113.12).

All the passages wherein gods are said to have been born from Ṛta, bear out the fact that gods are born of nature which is characterized as having a procreative power in itself.

Ṛta as nature includes all the things of the universe – the sun, moon, heaven, earth, air, cloud, the course of the sun, year, month, days and nights and so on. The sun rising upwards has been described as the pure and lovely face of Ṛta (R.V. VI.51.1). In another verse, the sun is described as shining in the seat of Ṛta (R.V. IV.5.9). The dawn like other luminaries starts her journey from a fixed point in this Ṛta (R.V. IV.51.8). She perfectly follows the path of Ṛta (R.V. V.80.4). The vast earth and heaven belong to Ṛta (R.V. IV.23.10). The names of the sun and Agni dwell in Ṛta (R.V. V.44.2). Various phenomena of nature are seen in their changing form in different seasons, which are mainly connected with Ṛta. Owing to this connection of seasons with Ṛta, the former is called Ṛtus. The year is the wheel of Ṛta with twelve spokes (R.V. I.164.11). In short, all things are the forms of Ṛta.


The concept of Ṛta as nature has been expressed by the seer Vāmadeva in three verses (8-10) of R.V. IV.28. According to Sarvajñatmamaṇi, Ṛta is the deity of these verses. In these verses, Sāyaṇa takes Ṛta as to mean Indra or Āditya or truth or sacrifice. The verses are as following-


Ṛtasya hi śurudhah santi pūrvīrṛtasya dhītirvṛjināni hanta | Ṛtasya śloko badhirā tatarda karṇā budhānah śucamāna āyoh ||
Ṛtatasya dṛlhā dharuṇāni santi purūṇi candrā vapiṁṣi | Ṛtena dīrghamiṣaṇanta pṛkṣha ṛtena gāva ṛtamā viveśuh ||
Ṛtaṁ yemāna ṛtamiddhanotyutasya śuṣmasturayā u gavyuh | Ṛtāya pṛthvī bahule gabhīre ṛtāya dhenū parame duhāte ||


In the first stanza, it is said that many are the comforts of nature or Ṛta. It is nature which gives comforts to all. It gives water, heat, air and everything that a man requires for his existence. If a man enjoys the things which have been granted to him by nature, he is called ‘righteous’; but when he disobeys nature, he is ‘unrighteous’ and for this unrighteousness he is punished. A man whatsoever inattentive he may be, when hears the chirping of birds in the morning, doesn’t remain unmoved. He at once gives his ear to the sounds coming through the sweet throat of the birds. In the figurative language of the Ṛgvedic poet it is called the workful and pure sound of nature that opens the deaf ears of man.

In the second stanza, it is said that the work of nature is firm-footed. Everybody knows that each action or each phenomenon of nature is regularly governed by certain principles and the principles which once governed will ever be governing. All beautiful things that attract the senses and fulfil the requirements, are forms of nature. It is nature which provides abundant food to every creature, animate or inanimate. The rays of the sun are said to have entered into nature by nature, that is to say, they are produced from nature and move in nature.

In the third stanza, it is said that one who controls nature, wins nature. This is the principle of modern science that nature can yield much, when it is controlled. For example, light which is a function of nature, when controlled, works on the accord of man; but when uncontrolled it follows the order of nature. The power of nature is very swift. It gives all things that are desired. It is said that the vast and deep earth and heaven belong to nature. Here earth and heaven are upalakṣaṇa. They indicate all things in the universe between earth and heaven. Whatever we receive from any object between earth and heaven, we receive from nature. Here heaven and earth are called two milch-kine.

The word Ṛta, originally being expressive of a subtle sense of the term, was so ambiguous that it developed various senses. In the first stage, Ṛta was used as a term conveying the sense of nature. It is derived from √ṛ ‘to go’. Every phenomenon of nature is characterized as moving constantly. For example, the sun, moon, stars, year, seasons, day and night and so on, are moving constantly. They have been moving from time eternal and will be moving up to eternity. This constant movement without rest was the main reason why the Ṛgvedic seers called it Ṛta.

In the Ṛgveda, flowing waters and rivers are called Ṛāvarī. Uśas is called Ṛtāvarī. Ṛtāvarī doesn’t mean ‘full of waters’ or ‘holy one’ or ‘truthful’. It only means one who moves constantly. This constant movement in the realm of nature yielded a new sense to the word Ṛta. The movement which nature undergoes, is not irregular. Thus, in the second stage Ṛta conveyed the sense of regularity or order. Under this sense, Ṛta is said to have ruled all the universe. All gods are said to have followed this eternal law of nature. The epithets Ṛtapā and Ṛtajña mean the protector of eternal law and the knower of eternal law respectively.

The regularity, found in the realm of nature, happened to be found in the worship of gods at the sacrifices. Gods were requested to attend the sacrifices regularly; oblations were offered to them in fire regularly and sacrificial fees were given to the priests regularly. Besides, many other regulations were observed in the sacrifices. That is why sacrifice is called as being conducted by Ṛta i.e. eternal law. And not only this, but the name Ṛta was given to the sacrifice itself.

Another reason of Ṛta as being called sacrifice was this that a symbolical sacrifice was also being performed in the nature itself and of that symbolic sacrifice in nature, the spring season was clarifies butter (ghṛta), the summer was fuel (idhma) and the autumn season was the oblation (haviṣ). The primodial self (puruṣa) was the sacrificial animal to be sacrificed in that sacrifice.

In the sacrifices some rules of morality i.e. Vrata or vow were strictly and necessarily observed by the priests as well as the sacrifice. Thus, the word Ṛta then conveyed the sense of morality and righteousness and its opposite sense was being conveyed by the word Anṛta. The word anṛta is used in classical Sanskrit in the sense of lie or false or untruth. Hence Ṛta as being opposite of anṛta began to be used in the sense of truth (satya). But fundamentally, there is difference between Ṛta as truth and satya as truth.

In the Ṛgveda, Varuṇa is closely related to Ṛta. In the later and post-vedic literature, Varuṇa has been regarded as the presiding deity of the waters. This led the commentators and the authors of the Nighaṇṭu and the Nirukta to think that Ṛta is water. In this way, the concept of Ṛta has been explained lucidly in the Vedas.

Now the concept of Tao is going to be discussed.


Taoism and Meaning of Tao

Different Chinese philosophers, since 6th century B.C, presented some major ideas and a way of life that are now-a-days known under the name of Taoism. Taoism is the way of correspondence between man and the tendency or the course of natural world.

The concept of Tao has long since fascinated the Chinese mind. Etymologically speaking, Tao is composed of two elements – the one signifying a head and the other signifying the act of running or walking along. Together they signify a path or a way for a person or something to run upon or to go along and on which to lead his sights. Used as a verb, the word Tao means ‘to direct’, ‘to guide’ and something ‘to say’, ‘to tell’ or ‘to be hold of’.

Lao Tzu, an eminent Chinese philosopher or saga, has pushed the meaning of Tao to its most speculative level. Thereby the concept of Tao became neither the way followed by something or some person, nor a way out of social, political and spiritual crises, but the Way itself, the Ultimate Reality or the Being of beings.

Lao Tzu, the legendary author of the Tao Te Ching, was the first to provide a comprehensive treatment of Tao. The religion based on the concept of Tao is known as Taoism. Lao Tzu taught that “He who follows that Tao is one with the Tao” and “Being at one with the Tao is eternal. Thought the body dies, the Tao will never pass away”.


Understanding Tao

The universe (Earth) as a whole reveals a high level of complex, order, creativity and or organization. The beauty of the unspoilt regions of the world: the harmonious complexity of the natural ecosystems have a just so quality, an integrated wholeness that the ancient Chinese called Tao. Tao is the way of heaven, a way of natural harmony; of truth, beauty and justice. Lao Tzu contrasts this Great Way with the way of human beings –

“The Tao of heaven is to take from those who have too much and give to these who don’t have enough. Man’s way is different. He takes from those who don’t have enough to give to those who already have too much.”

Lao Tzu characterizes the Way of Man as one in which force is applied without the attainment of desire results –

“Whenever you advise a ruler in the way of Tao, counsel him not to use force to conquer the universe. For this would only cause resistance. Thorn bushes spring up whenever the army has passed. Lean years follow in the wake of war. Just do what needs to be done. Never take advantage of power. Force is followed by loss of strength. This is not the way of Tao. That which goes against the Tao comes to an early end.”

All mankind’s troubles on the Earth are caused by his having forgotten the Great Way. Remembering the Great Way or Tao is a spiritual awareness of one’s deep connection with the entirely of creation. This involves the adoption of a mode of ‘non-action’ that isn’t inaction but rather a harmonization of one’s personal will – otherwise tending towards egoism –with the natural harmony and justice of Tao.

“Tao abides is non-action yet nothing is left undone. If kings and lords observed this, the ten thousand things would develop naturally… Without form there is no desire. Without desire there is tranquility. And in this way all things would be at peace.”

“The greatest virtue is to follow Tao and Tao alone. The Tao is elusive and intangible… This essence is very real and therein lies faith. From the very beginning till now its name has never been forgotten. Thus I perceive the creation. How do I know the ways of creation? Because of this.”

Lao Tzu sought to account for the origins of the ‘ten thousand things’ and their manner of growth and development.

“All things arise from Tao. They are nourished by virtue. They are formed from matter. They are shaped by environment. Thus the ten thousand things all respect Tao and honour virtue. Respect of Tao and honour of virtue are not demanded. But they are in the nature of things… Creating without claiming; doing without taking credit; guiding without interfering, this is Primal Virtue.”

“The great Tao flows both to the left and to the right. The ten thousand things depend upon it; it holds nothing back. It fulfils its purpose silently and makes no claim… The ten thousand things return to it, yet it is not their lord. It is very great. I don’t show its greatness, And is therefore truly great.”

“Yield and overcome; bend and be straight; empty and be full; wear out and be new; have little and gain; have much and be confused. Therefore wise men embrace the one and set an example to all… Therefore the ancients say – ‘yield and overcome’. Is that an empty saying? Be really whole and all things will come to you.”


Characteristics of Tao

Tao is basically indefinable. It has to be experienced. It refers to a power which envelops, surrounds and flows through all things, living and non-living. The Tao regulates natural processes and nourishes balance in the universe. It embodies the harmony of opposites (i.e. there would be no love without hate, no light without dark, no male without female).

There is a flow in the universe and it is called Tao. Tao flows slowly; however, it is never stagnant and is incredibly powerful and keeps things in the universe balanced and in order. It manifests itself through change of seasons, cycle of life, shifts of power, time and so forth. Tao has a strong and deep connection with cosmology and the natural world. Tao is the law of nature.

When one follows Tao, he becomes one with it. And it is the best to also understand ‘Qi’, because Qi and Tao go hand in hand. Qi is breath, vapour and energy. Because Qi is the energy that circulates the universe, it can be said that Tao is ultimately a flow of Qi.

The concept of Tao is based upon the understanding that the only constant in the universe is change and that we must understand and be in harmony with this change. The change is a constant flow from non-being into being, potential into actual, yin into yang, female into male. The symbol of the Tao, called the Taijitu, is the Yin-Yang confluently flowing into itself in a circle.

The Tao is the main theme discussed in the Tao Te Ching, an eminent Chinese scripture attributed to Lao Tzu. This book doesn’t specifically define what actually Tao is, but it depicts its nature.

The Tao that can be told is not the eternal Tao; The name that can be named is not the eternal name. The nameless is the beginning of heaven and earth. The named is the mother of ten thousand things. Ever desireless, one can see the mystery. Ever desiring, one can see the manifestations. These two spring from the same source but differ in name; This appears as darkness. Darkness within darkness. The gate to all mystery.

This book points to some characteristics of what could be understood as being the Tao. Below are some excerpts from the book-

• Tao as the origin of things : “Tao begets one; One begets two; Two begets three; Three begets myriad creatures.”
• Tao as an inexhaustible nothingless : “The Way is like an empty vessel. That yet may be drawn from Without ever needing to be filled.”
• Tao is omnipotent and infallible : “What Tao plants can’t be plucked, What Tao clasps can’t slip.”
Thus, the Tao is described beautifully in the Chinese texts.

Conclusion

From the above discussions, it may be concluded that nature or prakṛti or Ṛta as described in the Vedic scriptures, is the natural or universal law that governs the whole universe. Similarly in Taoism, it is Tao which regulates the whole universe by its immanent powers. Now-a-days scientists’ view is that Nature, through its inherent natural powers, controls the universe and universe is moving in a stable and systematic way. Prakṛiti or Nature is nothing but the five elements viz. water, wind, fire, earth and ether. Or we can say in modern terms, it is the matter or energy. Energy is the ultimate reality and truth. Energy is changing to form numerous identities which are seen in this material world; but in its true essence, it is indivisible and invisible. So, in Vedic age, it was stated as Ṛta for natural governing forces or powers or elements; and in Taoist culture, it remained as Tao for the same. Finally, we may state that Tao symbolizes Energy and Ṛta represents the elements of matter which are also nothing but the manifestations of that same Energy.

References

1. New Vedic selection, Chaubey Braj Bihari, New Delhi, 1972.
2. The Book of Lao Tzu, Foreign Languages Press, Beijing, 1993, 1st edition.
3. Chuang-Tzu, Yu-lan Fung, Foreign Languages Press, Beijing, 1989, 1st edition.
4. The sayings of Lao Tzu, John Murray, London.
5. The Text of Taoism (Part-1), Trans. By Legge, James, Dover Publications, Inc., New York, 1962.
6. Treatment of Nature in the Ṛgveda, Chaubey, Braj Bihari, Vedic Sahitya Sadan, Hoshiarpur, 1970, 1st edition.
7. Sources of Indian Tradition, Bary, Wm. Theodore de and others, Motilal Banarsidass, Delhi, 1972, Rpt.
8. The Tao of Physics, Capra, Fritjof, Sambhala Publications, Berkeley, 1975.

Saturday, December 10, 2011

शरीर एवं चेतना : एक अनुशीलन
(ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान तथा आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में)

सारांश

शरीर एवं चेतना से सन्दर्भित प्राच्य एवं पाश्चात्य की विभिन्न दार्शनिक चिन्तनधारा परिलक्षित होती आई है । पुनश्च वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इस विषय के ऊपर अनेकविध मन्तव्य प्रकट किये गये हैं । प्रस्तुत लेख में आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के पुट को संयोजित करते हुए ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन की ओर से एक विशेष अनुशीलन है, जिसमें भौतिक तत्त्व शरीर एवं चैतन्य शक्ति आत्मा के क्रियान्वयन के अन्तर को स्पष्टतया विवेचित किया गया है । मनुष्य केवलमात्र अणुओं से विनिर्मित एक तात्विक शरीर नहीं है, अपितु मूलतः स्वयं में एक आत्म-अभिज्ञ चैतन्य आध्यात्मिक ऊर्जा है जो जीवित शरीर को चलाने में पूर्णतया सक्षम है । अभौतिक सत्ता आत्मा ही अपनी अन्तर्निहित शक्ति ‘चेतना’ के माध्यम से विचार, अनुभव आदि कार्य-व्यवहार संपादित करती है । ‘चेतना’ पूर्णतः एक अपदार्थिक सत्ता है जो स्वयं अपने स्वरूप में अस्तित्वमान रह सकती है । किन्तु मानव-शरीर का निर्माण केवल मानव-कोशिका से होता है जो जीवद्रव्य, केन्द्रक, कोशिका सार, गुणसूत्र, डी.एन.ए. आदि तत्त्वों के साथ-साथ जीवित-कोशिका से समन्वित होती है ।

उपक्रम

अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों अथवा वैज्ञानिकों ने चैतन्य आत्मा के विषय में अपने-अपने ढंग से विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । प्राचीन काल से ही वर्तमान पर्यन्त आत्मा का यथार्थ स्वरूप, अवस्थिति, यथार्थ अनुभवकर्ता कौन? इत्यादि प्रश्नों के ऊपर नानाविध चर्चाएँ होती आ रही हैं किन्तु अभी तक एक सर्वस्वीकृत मत प्रतिष्ठापित नहीं हो पाया है । इस प्रसंग में वैज्ञानिक निरीक्षण तथा आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से उक्त विषय का समीचीन विशेषण करने का प्रयत्न किया गया है । ब्रह्माकुमारीज आध्यात्मिक संस्थान के मुख्य प्रवक्ता अध्यात्म-विज्ञानी ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र स्वीय अद्वितीय कृति ‘अविनाशी नाटक’ में तथा अन्य कतिपय पुस्तकों में आध्यात्मिक ऊर्जा ‘आत्मा’ अथवा ‘पुरुष’ के सन्दर्भ में अनेकविध विज्ञान-सम्बन्धी उद्धरणों तथा सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-दर्शन द्वारा प्रतिपादित एक सार्वभौमिक, सुनिश्चित तथ्य को उपस्थापित करते हैं । प्रस्तुत लेख, शरीर एवं चेतना सम्बन्धी विषय पर आधुनिक विज्ञान (मुख्यतः शरीर-क्रिया विज्ञान) तथा ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान के प्रकाश में एक विशेष अनुशीलन है ।

जीवित शरीर एवं चेतन्य आत्मा

ब्रह्माकुमारी अध्यात्म-विज्ञान प्रतिपादन करता है- शरीर के अतिरिक्त एक ऐसी सत्ता है जिसकी तात्त्विक प्रकृति है- ‘चेतना’ । यह अन्तर्विवेकशील सत्ता अपने ‘जीवित’ शरीर का उपयोग प्रत्यक्षण तथा क्रियाओं के उपकरणों के संयोजन के रूप में करती है । वह एक ‘जीवित’ शरीर के माध्यम से सुख तथा पीड़ा का अनुभव करती है एवं उसे ही ‘आत्मा’ संज्ञा दी जाती है । शरीर ‘जीवित’ रहता है और मृत्यु को प्राप्त करता है, किन्तु आत्मा सदैव जीवित रहती है । मनुष्य स्वयं एक चैतन्य आत्मा है एवं उसका शरीर अभिव्यक्ति का एक अद्भुत माध्यम है ।

इस प्रसंग में वैज्ञानिकों द्वारा यह उद्घोषित किया गया है कि किसी जीवित प्राणी के मुख्य तीन गुणधर्म होते हैं- उपापचयन (Metabolism), संवृद्धि (Growth) एवं बहुगुणन (Multiplication) । प्राणी पर्यावरण से अणु संग्रहण करती है, स्वयं के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ प्रतिधारण करती है तथा उच्छिष्ट पदार्थों का त्याग कर निरस्त कर दती है । वह अन्दर से वर्धित होती है तथा एक से दो होती हैं, इस प्रकार बहुगुणित होती रहती हैं । क्योंकि डी.एन.ए. (Deoxy Ribo-Nucleic Acid) अणुओं तथा जीनों (Genes) के पास संवृद्धि का कूट (Code) या संवृद्धि की आयोजना होती है, वे प्रतिकृतिकरण या द्विरूपकरण में सक्षम होते हैं इसलिए उसे ‘जीवन का अणु’ समझा जाता है । परन्तु डी.एन.ए. एन्जाइमों (Anzymes) अर्थात् डी.एन.ए. बहुकारक (Polymerase) के बिना अकेले ही स्वयं का द्विरूपकरण नहीं कर सकता । स्व-द्विरूपकरण संपूर्ण अविकल कोशिका का एक गुणधर्म है; डी.एन.ए. अणु स्वयं ही परख-नली मंन जनन नहीं करते । इसके अतिरिक्त डी.एन.ए. स्वयं अपने एन्जाइमों का द्विरूपकरण नहीं कर सकता । इसलिए, डी.एन.ए. जीवन के सामान्यतः सहमत लक्षणों को पूरा नहीं करता । डी.एन.ए. जीवित कोशिका के बाहर कार्य नहीं करता, बल्कि जीवित कोशिका के भीतर कार्य करता है ।

वैज्ञानिक जेम्स वाट्सन (James Watson) अपनी पुस्तक में वर्णन करते हैं- “जीवन एक समन्वित रासायनिक क्रिया है ।” किन्तु यह तथ्य बना रहता है कि समन्वित रासायनिक क्रिया तथा स्थितियों के माध्यम से जीवन निर्मित नहीं किया जा सकता है, बल्कि वह सामग्री निर्मित की जा सकती है जो जैव सामग्री के सदृश हो जिसे कोशिका-मुक्त तन्त्र (Cell-free system) कहते हैं । ए.टी.पी (Adenosine Triphosphate) के बाहर सक्रिय कारक एन्जाइमों, बहुकारकों तथा एटीपी को परख-नली में पाया जा सकता है एवं प्रोटीन संश्लेषण को देखा जा सकता है; किन्तु ये संरचनायें उपापचयन का कार्य कर सकती हैं, बढ़ सकती हैं तथा बहुगुणित हो सकती हैं तथापि ये स्वयं में जीवित रूप नहीं हैं ।

वैज्ञानिकों द्वारा (सिडनी फॉक्स द्वारा प्रोटीनॉएडों का संश्लेषण, अमीबा को संश्लेषित करने का प्रयत्न आदि) प्रयोग किये गये परीक्षणों से स्पष्ट होता है कि प्रोटीनों, डी.एन.ए. आदि जैसे अनेक महत्वपूर्ण संघटकों या घटकों को प्रयोगशाला में संश्लेषित किया जा सकता है तथा किसी ‘जीवित शरीर’ जैसी या सदृश किसी चीज़ को संश्लेषित किया जा सकता है, यद्यपि किसी परख-नली में जीवन के समरूप कोई चीज़ उत्पन्न नहीं की जा सकती है । नोबेल प्राइज विजेता रसायनज्ञ ज़ेन्ट ग्योर्जी (Szent Gyorgi) ने स्पष्ट अभिहित किया है : “जीवन के रहस्य की मेरी खोज में मुझे एटम और इलेक्ट्रॉन मिले, तथापि उनमें कदापि जीवन नहीं है । कहीं इस दिशा में जीवन मेरी अंगुलियों से निकल गया है । इसलिए अपनी वृद्धावस्था में मैं अपने कदमों को फिर से खोज रहा हूँ ।” इससे स्पष्टतः प्रकट होता है शरीर भौतिक संघटकों से निर्मित होता है । किन्तु वैज्ञानिक जो कुछ भी संश्लेषित कर सकते हैं उसमें चेतना का अभाव है जो किसी जीवित प्राणी का आवश्यक लक्षण है । प्रोटीनॉएडों या डी.एन.ए. में सोचने, अनुभव करने या संवेगों तथा मनोभावों को अभिव्यक्त करने की योग्यता नहीं होती ।

ब्र.कु. जगदीश मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि अतः संक्षेप में यही कहा जा सकता है- पदार्थ दो प्रकार का होता है 1. मृत पदार्थ (अजीव) तथा 2. जीवित पदार्थ (जीव) । जब पदार्थ किसी रासायनिक या जैव रचना होती है तब वह उपापचय का कार्य करता है, बढ़ सकता है तथा बहुगुणित हो सकता है । एवं वह पदार्थ चेतना के लिए अभिव्यक्त होने या कार्य करने का एक उपयुक्त माध्यम बन जाता है । उक्त पदार्थ की क्रियाशील मानव-कोशिका जीवद्रव्य (Protoplasm), केन्द्रक (Nucleus), कोशिका सार (Cytoplasm), गुणसूत्र (Chromosomes), डी.एन.ए. आदि सभी तत्त्वों के साथ-साथ ‘जीवित कोशिका’ (Living Cell) से समन्वित होती है । यद्यपि स्वयं उस पदार्थ अथवा कोशिका में चेतना का गुण नहीं होता है तथापि चेतना के प्रभाव के अन्तर्गत आने से प्रतीत होता है कि उसमें चेतना का गुण है । क्योंकि वस्तुतः चेतना का स्रोत जिसे ‘आत्मा’ कहा जाता है, पूर्णतः एक भिन्न अभौतिक व अपदार्थिक सत्ता है एवं उस अभौतिक सत्ता ‘आत्मा’ के संपर्क में रहने से वह पदार्थ (जीवित शरीर) चैतन्यमय आभासित होता है ।

इस प्रकाश में चिन्तन करने पर ‘जीवन’ भौतिक अस्तित्व की उस अवस्था को दिया गया नाम है जब किसी भौतिक तन्त्र में आत्मा होती है और उसकी चेतना कार्यशील रहती है, भले ही वह निम्न मात्रा में क्रियाशील हो । अन्य शब्दों में, क्रियाशील शरीर की अवस्था या अवस्थाओं को ‘जीवन’ विशेषतः तब कहा जाता है जब उसमें कोई आत्मा निवास करती है, जबकि आत्मा एक अभौतिक सत्ता है और स्थूल शरीर को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व हो सकता है या अस्तित्व की अवस्था या अवस्थायें हो सकती हैं ।

‘चेतना’ आत्मा के आवश्यक विशेषणों में से एक विशेषण है जिससे आत्मा के अस्तित्व की सूचना निर्विवाद रूप से प्राप्त होती है । चेतना अभिव्यक्त हो सकती है या सुप्त हो सकती है । इस अर्थ में यद्यपि जीवन तथा चेतना किसी भौतिक तन्त्र में घनिष्ठता से सम्बद्ध हो सकते हैं तथापि उनके दो भिन्न अर्थ हैं । कोई शरीर कुछ समय के लिए, चाहे वह कितना छोटा हो जीवित शरीर में तब भी बना रह सकता है जब आत्मा ने उसे छोड दिया हो और वह वातावरण में विचरण कर रही हो । इस अवस्था में शरीर में चेतना नहीं होगी, फिर भी उसमें तीन स्वीकृत लक्षण हो सकते हैं । तथापि उसे पुनर्जीवित करने की किसी प्रक्रिया के जरिए सामान्य अवस्था में लाया जा सकता है और आत्मा भी पुनः लौट सकती है या उस माध्यम के जरिए स्वयं को अभिव्यक्त कर सकती है । दूसरे शब्दों में, आत्मा अपनी चेतना तथा अपने अन्य गुणों के साथ किसी भौतिक शरीर के बिना अस्तित्व में रह सकती है एवं कोई भौतिक शरीर कुछ समय के लिए किसी जीवित शरीर के बिना ही जीवित शरीर बना रह सकता है । यह समय इस बात पर निर्भर होता है कितनी देर तक कोई जीव (Organism) अपनी तीन स्वीकृत विशेषताओं या तीन क्रियाओं को कायम रख सकता है ।

पुनश्च ब्रह्माकुमार जगदीश अभिधान करते हैं कि इस सत्य को न जानने के कारण मनुष्य स्वयं को एक जीवित शरीर समझता है । वह इस सत्य को सहजता से भूल जाता है या नजरअंदाज कर देता है कि वह एक ‘आत्मा’ है जिसके पास सोचने, अनुभव करने, स्मरण करने तथा परखने की योग्यतायें हैं । किन्तु वह इन योग्यताओं को मन से सम्बद्ध करता है या उनका श्रेय मन को देता है, जिसके बारे में उनके पास कोई स्पष्ट विचार नहीं है या जिसे अज्ञानता के कारण एक सूक्ष्म भौतिक सत्ता या मस्तिष्क का एक कार्य मानता है । वास्तवतः ‘चेतना’ या ‘मन’ जिसकी अभिव्यक्ति, विचार, भावना, निर्णय आदि के रूप में होती हैं, शाश्वत है तथा शरीर से भिन्न है और मन या आत्मा अभौतिक सत्ता है जो मस्तिष्क में उपस्थित रहकर कार्य संपादित करती है ।

शरीर और चेतना : दो भिन्न वास्तविकतायें

ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार शरीर पदार्थ के तत्त्वों से रचित है । ‘चेतना’ न तो इन तत्त्वों का गुण है और न ही उनमें से किन्हीं भी तत्त्वों के संयोजन का गुण है । ‘चेतना’ अभौतिक या आध्यात्मिक सत्ता आत्मा की अन्तर्निहित एक शक्ति है । आधुनिक विज्ञान के प्रकाश में शरीर-क्रिया विज्ञान से यह ज्ञात होता है कि शरीर कोशिकाओं से निर्मित होते हैं एवं कोशिकायें अणुओं से निर्मित होती हैं । पुनश्च शरीर की कोशिकायें निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं और प्रायः सात वर्षों की अवधि में पुरानी कोशिकाओं में इतना अधिक परिवर्तन होता है कि उस अवधि के अन्त तक नई कोशिकाओं द्वारा उन कोशिकाओं को ‘प्रतिस्थापित’ कर दिया जाता है । अतः शरीर में वह एक भी कोशिका नहीं होती जो सात वर्ष पहले थी । इस प्रकार शरीर वही नहीं रहता जैसा कि वह सात, चौदह या इक्कीस वर्ष पहले था । बाल्यकाल में किया गया किसी व्यक्ति का अनुभव अथवा अन्य सभी घटनाओं के स्मरण से (जो हर सात वर्ष के पूर्व का पश्चात् में होता रहता है) स्पष्टतः सूचित होता है- सचेतन सत्ता ‘चेतना’ तथा ‘शरीर’ दो भिन्न सत्तायें हैं । यद्यपि शरीर आयु के साथ परिवर्तित होता है तथापि आत्मा अपनी अनन्यता व निरन्तरता कायम रखती है । इसके विपरीत किसी व्यक्ति को मात्र एक शरीर (मस्तिष्क सहित) समझा जाय तो उसकी निरन्तर अनन्यता तथा निरन्तर व चेतना के तथ्य की व्याख्या नहीं की जा सकती है क्योंकि उसके शरीर तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं में सात वर्षों के पश्चात् बहुत अधिक परिवर्तन हो चुका होता है ।

इसके अतिरिक्त, ‘शरीर’ तथा ‘चेतना’ दोनों की पूर्णतः भिन्न-भिन्न वास्तविकता के स्वरूपों को प्रकटित करने के लिए सामान्य ज्ञान (जो स्पष्ट रूप से दैनन्दिन जीवन में अनुभूत होता रहता है) का आधार लेकर ब्र.कु. जगदीश चन्द्र उल्लिखित करते हैं - शरीर थक जाता है किन्तु चेतना थकती नहीं है, तथापि चेतना केवल ऊब सकती है । शरीर की भौतिक ऊर्जा निःशेष हो सकती है, किन्तु चेतना मानसिक, तात्त्विक या आध्यात्मिक ऊर्जा की अनिःशेषता का अनुभव कर सकती है और वस्तुतः वह ऊर्जा वर्षों के साथ बढ़ती है । शरीर वर्षों के बीतने से बूढ़ा हो जाता है, किन्तु मन केवल अधिक प्रज्ञावान तथा अधिक अनुभवी हो जाता है । हृदय जो शरीर का एक भाग है, आयु के बढ़ने के साथ कमजोर हो सकता है, किन्तु चेतना या मन की घृणा करने की या प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है । इस प्रकार ये दो भिन्न सत्तायें हैं- शरीर, कोशिकीय तथा आणविक होने के कारण भौतिक है; किन्तु मन, चेतना या आत्मा- मानसिक, आध्यात्मिक, अतिभौतिक, आधिभौतिक, अभौतिक अथवा पराभौतिक सत्ता है ।

चेतना : मस्तिष्क से पृथक् सत्ता

ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र अपनी पुस्तक के “शरीर से बाहर का अनुभव” अनुभाग में दो अलौकिक विषयों (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी संस्था के संस्थापक प्रजापिता ब्रह्माबाबा और सर ऑकलैन्ड गेड्डे के जीवन से सम्बन्धित वृत्तान्त) का दृष्टान्त प्रदर्शित कर निष्कर्ष रूप में अतीन्द्रिय चेतना तथा मस्तिष्क सम्बन्धी मन्तव्य प्रकटित करते हैं-

‘चेतना’ आत्मा का ही अन्तर्निहित गुण है । आत्मा चेतना के माध्यम से ही कार्य करती है, किन्तु मस्तिष्क उस चेतना को परिसीमित कर देता है । मस्तिष्क उसे केवल त्रि-आयामीय वस्तुओं का अनुभव करने योग्य बना देता है, परन्तु शरीर के बहिर्भूत आत्मा बहु-आयामीय अनुभव अथवा अतीन्द्रिय दर्शन कर सकती है ।

‘चेतना’ मस्तिष्क से पूर्णतः पृथक् है तथा अभिज्ञता की उच्चतर अवस्थाओं के साथ अशरीरी रूप में रह सकती है । वह अभिव्यक्त हो सकती है अथवा सुप्त भी रह सकती है । ‘चेतना’ कोई अनुघटन नहीं है, न ही कोई जैव-रासायनिक उत्पाद है और न ही मस्तिष्क के कार्य का परिणाम है । मनुष्य न केवल शरीर के बहिर्भूत सोच सकता है और अनुभव कर सकता है बल्कि देख भी सकता है और सुन भी सकता है । अतः विचार, प्रत्यक्षण, भावना, संकल्प, स्मृति आदि अमस्तिष्कीय कार्य हैं । सोचने तथा इच्छा करने का कार्य मस्तिष्क द्वारा नहीं किया जाता । संकल्प या इच्छा उस सत्ता से सम्बन्धित हैं जो शरीर के बाहर अस्तित्वमान रह सकती है तथा अन्तर्विवेकशील है । आत्मा अपने साथ अपने विचारों, अपनी भवनाओं तथा अपने कार्यों के संस्कार ले जाती है जो कि सुषुप्त हो सकते हैं या अभिव्यक्त हो सकते हैं ।

निष्कर्ष

इस प्रकार एक नवीन दृष्टिकोण के साथ ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र ने अतीन्द्रिय आध्यात्मिक चेतना तथा जड़ देह के अन्तर का विवेचन स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर मनुष्य को अपने लक्ष्य की ओर प्रगतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की है । यद्यपि मनुष्य अपने अनुभवात्मक ज्ञान का प्रयोग समयानुसार करता रहता है परन्तु ‘स्वयं’ का सत्य स्वरूप क्या है?- इस सन्दर्भ में अपने को सामान्य मानव-मात्र समझकर वह कार्य करने में अग्रसर होता रहता है जिससे उसकी स्थिति सदाकाल के लिए एकरस व सन्तुष्टता की नहीं रहती है । वास्तव में मनुष्य स्वयं एक अन्तर्विवेकशील चैतन्य सत्ता है जो कि देह का उपयोग कर अपने कार्यों का निष्पादन करता है । इस यथार्थ ज्ञान के अवबोध से ही उसका मानसिक दृष्टिकोण पूर्णतया परिवर्तित होकर एक श्रेष्ठ, मूल्यनिष्ठ समाज या संसार के नवनिर्माण में वह एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकता है । मानव ईश्वर की अनुपम रचना है, किन्तु अपनी वास्तविक पहचान व अनुभव होने से ही उस परमेश्वर के समस्त गुण अथवा शक्तियाँ उसके द्वारा अभिव्यक्त हो सकते हैं ।

सन्दर्भग्रन्थसूची

1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण

2. एक अद्भुत जीवन कहानी, भाग-1, संपा. ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान

3. भारतीय दर्शन में चेतना का स्वरूप, एस.के. सक्सेना, चौखम्बा विद्याभावन, वाराणसी, 1969

4. Science and Spirituality, B.K. Jagdish Chander, Brahmakumaris World Spiritual University, Pandav Bhawan, Mount Abu, 1988.

5. Parallels between Science and Religion and Philosophy and Science- A Critical Review, B.K. Jagdish Chander, Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Pandav Bhawan, Mount Abu, Rajasthan, 1994, 1st edition.

6. Do you know your Real Self, B.K. Jagdish Chander, Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Pandav Bhawan, Mount Abu, Rajasthan, 1994.

7. The New Vedic Selection, Braj Bihari Chaubey, Bharatiya Vidya Prakashan, Varanasi, 1972.

8. Psychology, Annie Besant, Theosophical Publishing House, Loss Angles, California, 1919, 2nd edition.

9. Mysteries of the Universe, B.K Nityanand Nair, Prajapita Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Mount Abu, 2008.

10. Life Beyond Death, Swami Abhedanand, Rama Krishna Vedanta Math, Calcutta, 1971.

11. Biology To-day, Del Mar, CRM Books, California, 1972.

12. Molecular Biology of The Gene, J.D. Watson. 1985.

13. Microbiology - A human perspective, Eugene W. Nester and others, McGraw Hill, New York, 3rd edition.

14. Gene Cloning and DNA Analysis : An Introduction, T.A. Brown, Blackwell Science Ltd, Oxford, U.K, 4th edition.

सृष्टि-संरचना : एक अनुशीलन
(भारतीय दर्शन, विज्ञान एवं ब्रह्माकुमारी दर्शन के सन्दर्भ में)

जीवन तथा सृष्टि-सम्बन्धित रहस्यों को उद्घाटित करने हेतु जिज्ञासु एवं प्रवृत्तिशील मनुष्यों के मानस में चिन्तनधारा प्रवाहित होती आ रही है । जबसे मानव ने अपने अस्तित्व एवं दृश्यमान बाह्य जगत् को जानने का प्रयास किया, तबसे उसकी बौद्धिक-चिन्तनशैली दार्शनिक व आध्यात्मिक दिशा को प्राप्त होती रही है । वैदिक काल से प्रारम्भ कर अद्यावधि अनेक दार्शनिक, वैज्ञानिक, विद्वान्, मनीषी स्व-बुद्धि-शक्ति का सम्यक् उपयोग कर सृष्टि-विषयक गंभीर तथ्यों के ऊपर मत प्रस्तुत करते आये हैं ।

क्रान्तदर्शी वैदिक ऋषियों ने मानस-चक्षु से साधना की श्रेष्ठ स्थिति में स्थित रहकर जिस सत्य का प्रत्यक्ष किया था, उसी के आधार पर समग्र वैदिक वाङ्मय का सृजन हुआ है । उस ज्ञान की अनुपम निधि वेद के हिरण्यगर्भ, नासदीय, पुरुष आदि कतिपय दार्शनिक सूक्तों में सृष्ट्युत्पत्ति-पूर्व की अवस्था तथा सृष्टि-सर्जना विषयक तथ्य मनोरम रूप में प्रतिफलित हुए हैं ।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । (ऋ. 10.121.1)
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् । (ऋ. 10.129.1)

तस्माद् विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ (ऋ. 10.90.5)


पुनश्च ऋग्वैदिक त्रिमन्त्रात्मक अतिक्षुद्र सूक्त भाववृत्त भी सृष्टि-विषयक गहन तथ्य को उपस्थापित करता है ।
ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽभ्यजायत ।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ (ऋ. 10.190.1)


इसी प्रकार वैदिक वाङ्मय अर्थात् संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् में सृष्टि-विज्ञान सम्बन्धित तथ्यों का विविध रूप से वर्णन किया गया है । उपनिषद् जो कि अध्यात्म व दार्शनिक क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, में जगत्, आत्मा, ईश्वर आदि सृष्टि के अङ्गभूत तत्त्वों के ऊपर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है । विद्वज्जनों के आख्यानानुसार समग्र उपनिषद्-रूप ज्ञानराशि के सारभूत शास्त्र श्रीमद्भगवद्गीता में सम्पूर्ण अध्यात्म-तत्त्वों के विषय सन्निविष्ट हैं । तत्त्वदर्शियों के मत में संसार में किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, अपितु रूपान्तरमात्र ही संघटित होता है । गीता में यह तथ्य उल्लिखित है-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । (गीता. 2.16)

अर्थात् असत् वस्तु की सत्ता नहीं है तथा सत् वस्तु का अभाव भी नहीं है । पुनः सृष्टि को एक अविनाशी वृक्ष के रूप में उपमित कर वर्णन किया गया है-
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ (गीता. 15.1)


फिर विश्व-ब्रह्माण्ड इत्यादि जागतिक तत्त्वों का समुद्भव कैसे हुआ? यह रहस्यात्मक विषय ज्ञातव्य है । इसी क्रम में पुराणों में भी सृष्टि-प्रक्रिया का सुस्पष्ट निदर्शन प्राप्त होता है ।

वैदिक सृष्टि-विज्ञान संबंधित गुह्य तथ्यों पर विश्लेषण करने हेतु तथा तार्किक शैली में उपस्थापित करने के उद्देश्य से विविध दार्शनिक शाखाओं का समुन्मेष हुआ है । प्रमुखतया वेदान्त, सांख्य, न्याय एवं बौद्ध - चारों भारतीय दर्शनों ने सृष्टि-तत्त्व के सन्दर्भ में एक-एक अभिनव पथ को प्रदर्शित किया है जो कि सत्कारणवाद, सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद एवं असत्कारणवाद नाम से विदित है । इन चारों दार्शनिक शाखाओं द्वारा स्थापित उक्त सृष्टि-सर्जनात्मक तथ्यों को क्रमशः एक-कारणतावाद, द्वि-कारणतावाद, अनेक-कारणतावाद व शून्य-कारणतावाद के नाम से अभिहित किया जा सकता है तथा उपर्युक्त कारणतावाद-चतुष्टय के अन्तर्गत ही अवशिष्ट समस्त दार्शनिक शाखाओं का समावेश हो जाता है ।

एक-कारणतावाद, जो कि अद्वैत-वेदान्त दर्शन द्वारा प्रतिष्ठापित है, में एकमात्र कारण ब्रह्म है, जिससे ही कृत्स्न जगत् की अभिव्यक्ति हुई है । महर्षि बादरायण-प्रणीत ब्रह्मसूत्र के ‘जन्माद्यस्य यतः’ (ब्र.सू. 1.1.2) सूत्र पर रचित शाङ्करभाष्य में इसका विशद विवेचन किया गया है । शैव दर्शन भी इस एक-कारणतावाद के सपक्ष में है, जिसमें एकमात्र परमसत्ता शिव से सकल जगत् की रचना का विषय वर्णित है । सांख्यदर्शन प्रतिपादित द्वि-कारणतावाद के अनुसार चैतन्य पुरुष और जड़ प्रकृति के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है । ईश्वरकृष्ण-कृत सांख्यकारिका में इसका दृष्टान्त उपलब्ध है-
पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य ।
पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत् कृतः सर्गः ॥ (सां.का, 21)


न्याय-वैशेषिक-दर्शन-प्रधान अनेक-कारणतावाद के अनुसार समग्र जगत् सामूहिक कार्यरूप है । इस जगत् में स्थित प्रत्येक कार्यरूप पदार्थ के पृथक् पृथक् कारण हैं, वे मूलतया परमाणुरूप हैं एवं एक परमाणु का अन्य परमाणु के साथ संयोग निमित्त कारण ईश्वर के द्वारा संपन्न होता है । जैनदर्शन में जीव, अजीव आदि अनेक तत्त्वों का वर्णन कर अनेक-कारणतावाद सिद्धान्त को प्रकट किया गया है । मीमांसादर्शन एवं चार्वाकदर्शन भी इस वाद का समर्थन करते हैं । शून्य-कारणतावाद सिद्धान्त के पक्षधर बौद्धदर्शन में शून्य-रूपात्मक जगत् की अभिव्यक्ति का स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है ।

इसी प्रकार प्रत्येक दार्शनिक शाखा के मूर्धन्य विद्वानों ने उक्त सृष्टि-संबंधी विषय को प्रस्तुत करने के लिए यथातथ्य तर्कादि द्वारा स्व-स्व सैद्धान्तिक मतों को पुष्ट किया है । प्राचीन दार्शनिकों ने अपनी उच्चतर मनःस्थिति के माध्यम से प्रसंग को उपस्थापित करने हेतु तर्क व प्रमाणादि का चयन किया है तथा फलस्वरूपतः स्वकीय दार्शनिक शाखा को एक उच्च स्तर पर अवस्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया है ।

सृष्टि व तत्संबंधित रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु जो प्रयास किया गया है उसमें एक दार्शनिक शाखा के सिद्धान्त में जो न्यूनता परिलक्षित हुई है, उसको पूर्वपक्ष के रूप में सादर स्थान प्रदान कर, परिहार करने के लक्ष्य से उत्तरपक्ष के रूप में अन्य दार्शनिक शाखा, अपने सिद्धान्त को प्रामाणिक रीति से सयुक्तिक भिन्न-भिन्न तथ्यों का समावेश कर प्रतिष्ठापित करती है । अतः चार्वाक दर्शन से आरम्भ कर अद्वैत-वेदान्त दर्शन पर्यन्त दार्शनिक परम्परा की स्थिति उपस्थित हुई अथवा भौतिकता की पृष्ठभूमि से लेकर पारमार्थिक अवस्था तक पहुँचने की क्रमिक गति आकलित की गई है ।

वर्तमान समय में विज्ञान की सर्वांगीण प्रतिष्ठा है, क्योंकि विज्ञान किसी भी वस्तु के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए समुचित साधनों का उपयोग कर अनुभूत सिद्धान्तों को सर्वसमक्ष उपस्थित कर देता है । अतः विज्ञान के निष्कर्ष निश्चित तथा पूर्णतया स्पष्ट स्वीकार किये जाते हैं । विज्ञान मुख्यतः जड़ प्रकृति में संघटित क्रिया-प्रतिक्रिया को विधिपूर्वक जानने, परीक्षण करने तथा प्रयोग करने के ऊपर ध्यान देता है । सृष्टि-संरचना के क्षेत्र में विज्ञान के दो प्रमुख आयामों का अवलोकन किया जाता है । प्रथमतः शास्त्रीय भौतिकी (Classical Physics) जिसमें प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के द्वारा प्रदत्त सिद्धान्त उल्लेखनीय है एवं द्वितीयतः आधुनिक भौतिकी (Modern Physics) जिसमें प्रख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन का सामान्य और विशेष सापेक्षता का सिद्धान्त (General & Special Theory of Relativity), जेम्स क्लॉर्क मैक्सवेल का तापगतिकी सिद्धान्त (Theory of Thermo-dynamics), मैक्स प्लैंक का क्वाण्टम सिद्धान्त (Quantum Theory) तथा हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त (Principle of Uncertainty or Indeterminism) सर्वप्रमुख व प्रायः सर्वस्वीकृत हैं ।

न्यूटन के द्वारा प्रतिष्ठापित सिद्धान्त, पाश्चात्य दार्शनिक व गणितज्ञ रेने डेकार्त के मत पर अवलम्बित है, जिसमें मन (Mind) एवं द्रव्य (Matter) - दो मुख्य तत्त्वों के ऊपर विमर्श किया गया है । न्यूटन के सिद्धान्तानुसार विश्व की अवस्थिति, त्रि-आयामीय अवकाश (Space) पर है, जिसमें समस्त भौतिक घटना संघटित होती है । यह अवकाश सदा निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनशील है । पुनश्च भौतिक जगत् में होने वाले परिवर्तन को वर्णित करने का आधार समय भी निरपेक्ष है तथा वह जगत् से पूर्णतः असंबद्ध व निरन्तर प्रवहमान है । जगत् के समस्त तत्त्व, भौतिक कण जो कि नितान्त सूक्ष्म, ठोस तथा परिवर्तन-रहित हैं, इन दोनों निरपेक्ष अवकाश-समय (Space-time) के अन्तर्गत ही गतिशील होते हैं । न्यूटन की दृष्टि में, सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर ने भौतिक कणों का निर्माण, उनमें बल तथा गतिमान होने की क्षमता उत्पन्न की । इसी प्रकार समग्र विश्व गतिशीलता को प्राप्त हुआ एवं अपरिवर्तनीय नियमों के द्वारा एक यन्त्र की भाँति चल रहा है ।

परन्तु 20वीं शताब्दी में विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने जब सापेक्षता के सिद्धान्त (Theory of Relativity) और मैक्स प्लैंक ने क्वाण्टम सिद्धान्त (Quantum Theory) को स्थापित किया, तब न्यूटन का जगत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया तथा आधुनिक भौतिक-विज्ञान (Modern Physics) का शुभारम्भ हुआ । प्रथमतः अल्बर्ट आइन्स्टाइन के ‘सापेक्षता का सिद्धान्त’ के अनुसार अवकाश (Space) त्रि-आयामी नहीं है और न ही समय (Time) की कोई पृथक् स्थिति है । दोनों का पारस्परिक अन्तःसंबंध होकर एक चतुः आयामीय सातत्यक (Four-dimensional continuum) का गठन होता है । अतः अवकाश की स्थिति समय के बिना अथवा समय का कथन अवकाश के बिना संभव नहीं । दोनों की सापेक्षता, न्यूटन के निरपेक्ष अवकाश-समय (Absolute space-time) मत को निरस्त कर देती है ।

पुनश्च न्यूटन द्वारा प्रतिपादित भौतिक तत्त्व वा कण सम्बन्धित मन्तव्य का भी निरसन हो जाता है । यह भौतिक तत्त्व ठोस नहीं है, अपितु ऊर्जारूप है । तापगतिकी के प्रथम नियमानुसार ऊर्जा की न ही उत्पत्ति और न ही विलय होता है, केवल रूपान्तरण-मात्र घटित होता है ।

द्वितीयतः क्वाण्टम सिद्धान्त के अनुसार भौतिक जगत्, परमाणुओं का संघातरूप है और वह परमाणु भी इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन उप-परमाणुओं का समाहार है । अर्थात् भौतिक जगत् में निरन्तरता नहीं है, परन्तु सूक्ष्म विच्छिन्न भौतिक ऊर्जा कणों का समूह ही विद्यमान है । प्रकाश की धारा भी अविच्छिन्न नहीं है, किन्तु उसमें भी पृथक् पृथक् सूक्ष्म प्रकाश कण समाविष्ट हैं । यह प्रकाश, कण तथा तरंग उभय रूप में प्रतीत होता है । आइन्स्टाइन ने क्वाण्टम सिद्धान्त को आधार बनाकर मत प्रस्तुत किया है कि सभी प्रकार के विकिरण-रूप ऊर्जा, प्रकाश, ताप, क्ष-किरण (x-ray) आदि वास्तवतः अवकाश के माध्यम से पृथक् वा विच्छिन्न रूप से गतिशील होते हैं । प्रकाश कणों को ही फोटॉन (Photon) नाम से नामित किया गया है ।

तृतीयतः जर्मन भौतिकीविद् हाइजेनबर्ग द्वारा प्रतिपादित अनिश्चितता का सिद्धान्त (Principle of Uncertainty) के फलस्वरूप न्यूटन एवं डाल्टन के परमाणु विषयक सिद्धान्त खण्डित हो जाते हैं तथा पारमाणविक जगत् में एक नवीन दृष्टिकोण प्राप्त होता है । किन्तु आइन्स्टाइन ने इस सिद्धान्त को अस्वीकार किया है । अनिश्चितता सिद्धान्त के अनुसार- विज्ञान को अबतक ज्ञात किसी भी सिद्धान्त के सहारे किसी इलेक्ट्रॉन की स्थिति और उसके वेग को निश्चित करने और उसी के साथ विश्वास-पूर्वक यह कहना कि कोई इलेक्ट्रॉन ‘ठीक यहाँ’ है और ‘इतनी-इतनी गति से’ गतिशील है, असंभव है क्योंकि उसकी स्थिति का प्रेक्षण करने के कार्य से ही उसका वेग बदल जाता है और विलोमतः, मनुष्य उसके वेग को निश्चित करने की कोशिश जितनी ही अधिक करता है उतनी ही अधिक अनिश्चित उसकी स्थिति हो जाती है । पुनश्च इस सिद्धान्त का अन्य तात्पर्य यह है कि कारण-कार्य सम्बन्ध का प्रयोग क्वाण्टम या उप-पारमाणविक जगत् के क्षेत्र में नहीं हो सकता ।

चतुर्थतः मैक्सवेल प्रतिपादित तापगतिकी (Thermo-dynamics) के द्वितीय नियम के अनुसार विश्व में भौतिक तत्त्व वा प्रकृति, जो कि चिरस्थायी है, निरन्तर परिवर्तित हो रही है और वह परिवर्तन, विच्छेदन की ओर सूचित कर रहा है । प्रकृति की समस्त संघटना, जो कि अणु तथा बाह्य अवकाश में घटित हो रहा है, सूचित कर रही है कि द्रव्य और विश्व की ऊर्जा अनवरत रूप से विकीर्ण हो रही है अर्थात् उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा में हानि हो रही है, जिसे एन्ट्रॉपी (Entropy) नाम से अभिहित किया गया है । इसी दृष्टि से विश्व में स्थित ऊर्जा अन्ततः शून्यता को प्राप्त करने की संभावना हो रही है । अतः विश्व उष्मा-मृत्यु (Heat-death) की ओर अग्रसर हो रहा है, जिसको अत्यधिक एन्ट्रॉपी (Maximum Entropy) की अवस्था द्वारा परिभाषित किया गया है । फलतः प्रकृति की समग्र प्रक्रियाएँ अवरुद्ध हो जायेंगी ।

पञ्चमतः सृष्ट्युत्पत्ति के विषय में विज्ञान के अत्यन्त लोकप्रिय तथा प्रचलित सिद्धान्त बिगबैंग सिद्धान्त (Bigbang Theory) महत्त्वपूर्ण है, जो कि 1927 में खगोलशास्त्री जर्ज एडवर्ड लिमाइत्रे द्वारा प्रथम प्रस्तावित किया गया एवं खगोल-भौतिकीविद् जर्ज गेमो के समर्थन और प्रचार-प्रसार से एक सिद्धान्त का रूप धारण किया । इस सिद्धान्त के अनुसार दूरस्थ अतीत के शून्य समय (Zero time) में ब्रह्माण्ड (विशाल द्रव्यमान) का प्रचण्ड विस्फोट हुआ । उस महाविस्फोट के अंश जो कि सभी दिशाओं में प्रचंडता से प्रक्षिप्त हुए, आकाशगंगायें बन गये । न केवल ब्रह्माण्ड के अंशों से आज की आकाशगंगायें बनीं, अपितु एक सूक्ष्म स्तर पर ब्रह्माण्ड खण्डित हुआ एवं इस प्रकार विभिन्न परमाणु तथा ज्ञात 108 मूल तत्त्वों का भी निर्माण हो गया । इस बिगबैंग सिद्धान्त में दृष्ट न्यूतता को दूरीभूत करने के लिये बाद में तीन वैज्ञानिक हरमन बॉण्डी, थॉमास गोल्ड तथा फ़्रेड हॉयल ने सतत निर्माण सिद्धान्त (The Continuous Creation Theory) या स्थायी अवस्था सिद्धान्त (The Steady-state Theory) का विवेचन प्रस्तुत किया ।

षष्ठतः विकासवाद के जनक, चार्ल्स डार्विन ने जीवन के उद्गम के विषय में अपना मत प्रस्तुत किया, जो डार्विन सिद्धान्त (Darwin Theory) के नाम से प्रख्यात हुआ । इस सिद्धान्त के अनुसार जीव एक आद्य सूप (Premodial soup) से उत्पन्न हुआ । उसके पहले निर्जीव द्रव्य था और पृथिवी पर सरलतम रूप में था, जैसे कि एक कोशिका अमीबा के रूप में जीवन का अस्तित्व नहीं था । तबसे अनेक वैज्ञानिकों ने जीवित कोशिका, जीवित अणु, जीवित प्रोटीनॉएड या जीवित अणु सूक्ष्म गोलक का संश्लेषण करने के लिए प्रयोग किये हैं । पुनश्च जीन से प्रारम्भ कर कोशिका, तन्त्र आदि के माध्यम से आधुनिक जीव-विज्ञान सन्दर्भित मनुष्य के निर्माण विषयक तथ्य पर दृष्टि दी गई है । सूक्ष्म जीव-विज्ञान के जनक लुईस पाश्चर का मत तथा सेल्ड्रेक का सिद्धान्त (Theory of Morphogenetic fields) इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं ।

इसी प्रकार से आधुनिक विज्ञान ने जीवन तथा जगत् के सृजनात्मक तथ्यों को उपस्थापित किया है । विज्ञान प्रतिपादित डार्विन सिद्धान्त तथा बिगबैंग सिद्धान्त पर अनेक वैज्ञानिकों ने न्यूनता दर्शाई है, जबकि सापेक्षता का सिद्धान्त (Theory of Relativity), क्वाण्टम सिद्धान्त (Quantum Theory) एवं तापगतिकी सिद्धान्त (Theory of Thermo-dynamics)- तीनों चरम तथा त्रुटिहीन सिद्धान्त के रूप में अधुना सर्वसम्मत हैं । अतः डार्विन सिद्धान्त (Darwin Theory) व बिगबैंग सिद्धान्त (Bigbang Theory) का विश्लेषण करना उपयोगी सिद्ध होगा ।

एवंतया दर्शन और आधुनिक विज्ञान, दोनों का सम्मिश्रित-रूप ही वास्तविक सत्य एवं तथ्य को उन्मोचित करने में समर्थ होगा । दर्शन का मुख्य उद्देश्य ही है सुनिश्चित प्रमाणों का अवलम्बन कर उक्त विषय का दिग्दर्शन कराना । अध्यात्म एक ऐसी दिशा है जो सिद्धान्तों वा मूल्यों इत्यादि के बारे में पक्षरहित तथा द्वेषरहित दृष्टि से और युक्ति तथा विवेक-सम्मत रीति से प्रकाश डालती है । अतः विज्ञान, दर्शन व अध्यात्म- दिशात्रय से विषय-वस्तु का अन्वेषण व परीक्षण करना ही सर्वोत्तम विधि सिद्ध होगी । एतत्सहित व्यावहारिक ज्ञान को भी समाविष्ट करना उपयोगी होगा क्योंकि इसकी अनिवार्यता सर्वस्वीकृत है तथा इससे प्रतिकूल विषय की यथार्थता भ्रान्ति की परिचायिका होती है ।

इसी दिशा में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, एक विश्वव्यापी आध्यात्मिक शिक्षण संस्थान, दर्शन-क्षेत्रावलम्बित तत्त्व-मीमांसीय चिन्तन-प्रणाली में एक विशेष व अभिनव पथ का दिग्दर्शन कराता है जिसमें सृष्टि-संरचना या सृष्टि-तत्त्व को विज्ञान-सम्मत, तर्कसंगत तथा युक्तिपूर्ण रीति से विवेचन करने का प्रयास किया गया है । मान्यतानुसार निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ के साकार माध्यम से जो ईश्वरीय महावाक्य या ज्ञान को प्रकट किया है, वही ब्रह्माकुमारी दर्शन का मूल स्रोत है । इस आध्यात्मिक शिक्षा संस्थान के मुख्य प्रवक्ता ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा ने उक्त ईश्वरीय ज्ञान के आधार से प्रसंगानुकूल विषय-वस्तु की सत्यता को वैज्ञानिक तथा दार्शनिक दृष्टिकोण से अनुशीलन कर एक सारभूत तथ्य को सर्वसमक्ष दृढ़ता के साथ प्रतिपादित या प्रतिष्ठापित करने का उद्यम किया है । ब्रह्माकुमारी दर्शन के अनुसार अचेतन वस्तु जगत् या भौतिक विश्व अजात तथा शाश्वत तत्त्वों का रूपान्तरण या प्रभाव है । द्रव्य के तत्त्व और तत्सहित उनके प्रभाव अविवेकी व उत्पादक हैं किन्तु स्वयं द्रव्य उत्पाद नहीं है क्योंकि वह शाश्वत है । द्रव्यरूप जगत् निरन्तर परिवर्तनशील होने के कारण अल्पकालिक है । परन्तु संपूर्ण जगत् आदि-द्रव्य या द्रव्य की पारमाणवीय अवस्था में कभी भी रूपान्तरित नहीं होता तथा न ही यह विश्व कभी मानव-प्राणियों से विहीन होता है । यह जगत् एक ब्रह्माण्डीय नाटक-रूप है जिसमें संघटित होने वाली प्रत्येक घटना का पुनरावर्तन हर 5000 वर्ष के उपरान्त चक्रीय गति से होता है । क्योंकि विश्व की घटनायें ऐसी हैं कि एक घटना दूसरी घटना का कारण और दूसरी घटना किसी अन्य घटना का कारण है एवं इस प्रकार कार्य-कारण की शृंखला अन्तहीन हो जाती है । अतः चक्र-रूप संघटित होने से विश्व-प्रक्रिया की शाश्वतता निश्चित होती है ।

विश्व एक स्व-पोषक, स्व-शाश्वतकारी (Self-perpetuating) तथा स्व-पुनरावर्ती चक्रीय तन्त्र है । यह जगत् एक उत्पाद नहीं है, अपितु इसमें पृथक् पृथक् निर्माताओं द्वारा निर्मित उत्पाद अन्तर्विष्ट हैं । संसार ऐसे उत्पादों का समूह है जिनके प्रकृति की शक्तियों के रूप में अपने-अपने निर्माता से और प्रत्येक संघटक की अन्तर्निहित प्रकृति अन्य प्रकृति से अन्तःक्रिया करती है । प्रकृति की वस्तुओं में एक प्रणाली है जो निश्चित वैश्विक नियमों के कारण है एवं उनसे वस्तुओं के कार्य विनियमित होते हैं । प्रकृति के ये नियम अनिर्मित हैं और सर्वदा विद्यमान हैं एवं रहेंगे । उदाहरणस्वरूप- बीज एक अन्तर्निहित आनुवंशिक कूट और विभव के अनुसार पौधा या पादप के रूप में विकसित होता है । इसके लिये किसी भी बाहरी सचेतन कर्ता या नियामक नियति की आवश्यकता नहीं होती जो उसका निर्माण करे । प्रकृति के कतिपय नियम उसकी वृद्धि की व्याख्या करते हैं, अन्यथा रचयिता कोई नहीं है । इसी प्रकार भौतिक जगत् का निर्माण किसी भी सचेतन कर्ता या ईश्वर के द्वारा नहीं हुआ है । किन्तु जब उभय आध्यात्मिक व भौतिक ऊर्जा में गिरावट आने से अधिकतम एन्ट्रॉपी की अवस्था पहुँच जाती है तब आध्यात्मिक ऊर्जा के उच्चतम बिन्दु स्रोत परमात्मा इस भौतिक जगत् में हस्तक्षेप करता है एवं ईश्वरीय ज्ञान तथा राजयोग के माध्यम से आध्यात्मिक एन्ट्रॉपी को उत्क्रमित कर देता है और अन्यपक्षतः परमाणु अस्त्रशस्त्र के विखण्डन, प्राकृतिक आपदाओं आदि द्वारा भौतिक एन्ट्रॉपी उत्क्रमित हो जाती है । जिससे एक पूर्ण व्यवस्थित व सन्तुलित जगत् की स्थापना होती है । मनुष्यात्माओं के नैतिक पुनरुत्थान या आध्यात्मिक नवीनीकरण द्वारा ही भौतिक विश्व में परिवर्तन होने से प्रकृति में पुनः ऊर्जा आती है एवं सृष्टिचक्र पुनः प्रारम्भ होता है । स्थूल जगत् शाश्वत है, ईश्वर केवल इसका रूपान्तरण या जीर्णोद्धार करता है जिसके कारण उसको ‘नूतन जगत्-निर्माता’ या ‘विश्व-रचयिता’ या ‘सृष्टिकर्ता’ के नाम से अभिहित किया जाता है । यह भौतिक जगत् आकाश नामक तत्त्व में अवस्थित है । किन्तु इस इस विश्व से भी ऊर्ध्व सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का एक सूक्ष्म जगत् ‘अव्यक्त धाम’ एवं उसके पार निराकारी आत्माओं व ईश्वर का जगत् ‘ब्रह्म धाम’ नाम से सूक्ष्म विश्वद्वय हैं जो कि स्वयंप्रकाशी अचेतन महत्तत्त्व या ब्रह्म नामक तत्त्व में अवस्थित हैं । यह भौतिक विश्व यद्यपि आकार में विशाल किन्तु सीमित है द्रव्यमानरहित, गतिहीन, अनन्त ‘दिव्य द्रव्य’ ब्रह्म तत्त्व (ब्रह्माण्ड) रूपी परिवलयक द्वारा परिवेष्टित है । ब्रह्म जगत् से ही आत्मायें एवं परमात्मा इस स्थूल जगत् में अवतरण कर अपनी अविनाशी भूमिका लीला के रूप में प्रस्तुत कर पुनः कल्प के अन्त में स्वधाम की ओर प्रत्यावर्तन करते हैं । चतुःआयामीय अवकाश-काल सातत्यक रूपी इस भौतिक जगत् का पाँचवा नैतिक आयाम भी है जो जीवों की क्रिया की केवल प्रतिक्रिया के रूप में संघटित नहीं होती, अपितु उसके परिणामरूप कर्ता को मुख्यतः दुःख या सुख-दुःख का मिश्रण प्राप्त होता है ।

पुनश्च जगत् के स्वरूप के सन्दर्भ में दार्शनिक व वैज्ञानिक मतावलम्बित द्रष्टा और दृश्य या विषयी और विषय के मध्य सम्बन्ध का महत्त्वपूर्ण तथ्य भी विवेचनीय है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने सापेक्षता सिद्धान्त एवं एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त (Unified Field Theory) के माध्यम से प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि - द्रव्य एवं ऊर्जा परस्पर परिवर्तनीय हैं तथा भौतिक ऊर्जा के सभी रूप मूलतः एक ही हैं अर्थात् प्रकृति की समस्त शक्तियाँ (विद्युत्-चुम्बकीय, मेसॉन, गुरुत्वाकर्षण बल इत्यादि) वास्तवतः एक ही मूल शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार विज्ञान-प्रतिपादित क्वाण्टम सिद्धान्त एवं एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त क्रमशः व्यष्ट्यात्मक व समष्ट्यात्मक जगत् के स्वरूप की ओर इंगित करते हैं । आधुनिक भौतिकी की दो शाखाएँ क्वर्क्स (Quarks) एवं होलन (Holons), एतद्विषयक व्यष्टिक तथा समग्रता की अवधारणा प्रस्तुत करती हैं । दार्शनिक चिन्तन-पद्धति में भी इसी समष्टि-व्यष्टि रूपात्मक जगत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण के अनेक निदर्शन प्राप्त होते हैं जिससे विज्ञान एवं दर्शन के मध्य ऐक्य अथवा समन्वयता का चित्र प्रतिबिम्बित होता है । किन्तु उक्त उभयात्मक विधि की यथार्थता विचारणीय है ।
वर्तमान समय में आधुनिक विज्ञान अपनी चरम सीमा को प्राप्त करने में प्रयासरत है, क्योंकि अनेक प्रतिष्ठित भौतिकी-विज्ञानी, खगोलशास्त्री इस कार्य में संनिबद्ध हैं । अन्यतः, मुख्यतः भारतीय दर्शन में उस परम-कारण या परम-सत्ता या परम-शक्ति के विषय में अनेकशः उल्लेख दर्शन के ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । अतः यही समुचित समय है जहाँ उभय दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान के मध्य समानान्तरता का निरूपण कर संबंध स्थापित किया जा सकता है । इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर अनेक दार्शनिक तथा खगोल-भौतिक-विज्ञानी इन दोनों क्षेत्र में सामञ्जस्य का वर्णन अपने-अपने लेखन में करते हैं । निम्नोक्त कतिपय दृष्टान्त द्रष्टव्य हैं-

ख्यातनामा भौतिकीविद् फ़्रिट्जॉफ़ काप्रा (Fritjof Capra) अपनी पुस्तक ‘The Tao of Physics’ में उल्लेख करते हैं कि परम-सत्ता शिव का नृत्य ही नर्तनशील जगत् है । ऊर्जा का अनवरोधित प्रवाह जो अनन्त रूप में गतिशील है, एक-दूसरे में परस्पर अन्तर्वेशित हो रहा है । शिव का नर्तन ही उप-पारमाणविक द्रव्य का नर्तन है । यह सर्जना और विनाश का निरन्तर नृत्य है जिसमें सम्पूर्ण जगत् समाविष्ट है ।
पुनश्च अन्तःशीर्षक में नाम संयोजित कर समान्तरता को अभिसूचित करते हुए लिखते हैं-
"An Exploration of the parallels between Modern Physics and Eastern Mysticism"

अद्वैत-वेदान्ती दार्शनिक स्वामी विवेकानन्द दर्शन और विज्ञान में समानान्तरता का कथन करते हुए कहते हैं - मन (Mind) और द्रव्य (Matter), दोनों में केवल आभासिक भेद है, वस्तुतः सत्ता एक ही है ।

सत्ता (Being) और द्रव्य (Matter) में कोई द्वन्द्व नहीं है, दोनों एक ही हैं । जैसे परमाणु अदृश्य, अचिन्त्य है; किन्तु उसमें समग्र संसार की मूलशक्ति तथा क्षमता अन्तर्निहित है, वैसा ही वेदान्ती ‘आत्मा’ के विषय में अभिधान करते हैं ।

पुनश्च समग्र विश्व में एकसत्तात्मकता का वर्णन कर सांख्यदर्शन की प्रकृति (Nature) को ही ईश्वर (God) के रूप में स्वीकार करते हैं ।

विशिष्ट पदार्थ-विज्ञानी फ़्रिट्जॉफ़ काप्रा के वैज्ञानिक अभिमतों का एवं अद्वैतवेदान्ती स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक अभिमतों का समीक्षण करते हुए ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र स्वकीय मन्तव्य प्रस्तुत करते हैं ।

इस प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से विज्ञान व दर्शन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का पुनरीक्षण कर तत्त्वमीमांसीय क्षेत्र का विश्लेषण तथा मूल्याङ्कन करना सर्वथा उपयोगी सिद्ध होगा; क्योंकि विज्ञान व दर्शन की अपेक्षा अध्यात्म सूक्ष्म, उच्चतर अनुभवसिद्ध स्तर है जिसको त्याग कर विज्ञान एवं दर्शन के सिद्धान्तों पर दृष्टि देना एकाङ्गी होगा । अतः अध्यात्म-दर्शन-विज्ञान तीनों उच्च कोटि के आयामों का समावेश कर उपर्युक्त तथ्यों पर विमर्श करने से सृष्टि-संबंधित रहस्यात्मक अन्वेषण को एक सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकेगा एवं एक निश्चित निष्कर्ष की भी प्राप्ति हो सकेगी ।

*****

सन्दर्भग्रन्थसूची :

1. प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक, भाग-1, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान, 2003, तृतीय संस्करण

2. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-2, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान

3. श्लोकवार्त्तिक, कुमारिल भट्ट, पार्थसारथिमिश्र की ‘न्यायरत्नाकर’ व्याख्या सहित, संपा. रामशास्त्री तैलङ्ग, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी

4. मध्यमकशास्त्रम्, नागार्जुन, चन्द्रकीर्त्ति की प्रसन्नपदा व्याख्या संवलित, संपा. श्रीधर त्रिपाठी, संस्कृत विद्यापीठ, मिथिला, बौद्ध संस्कृत ग्रन्थावली, संख्या 10, दरभंगा, 1987, द्वितीय संस्करण

5. ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य-रत्नप्रभा, भाषानुवाद सहित, प्रथम भाग, भोलेबाबा, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, 2004

6. सांख्य-तत्त्व-कौमुदी, वाचस्पति मिश्र, हिन्दी अनुवाद, आद्याप्रसाद मिश्र, इलाहाबाद

7. व्योमवती, व्योमशिवाचार्य, संपा. गोपीनाथ कविराज, ढुण्ढिराज शास्त्री, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, ग्रन्थ संख्या. 61, 1930

8. जैनसिद्धान्तदीपिका, आचार्य तुलसी, आदर्श संघ, चुरू, राजस्थान, 1970, द्वितीय संस्करण

9. ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी, भाग 1-2 (कारिका-टीका), अभिनवगुप्त, काश्मीर ग्रन्थावली, श्रीनगर, 1921

10. सर्वदर्शनसंग्रह, माधवाचार्य, संपा. उमाशंकर शर्मा ‘ऋषि’, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1964

11. श्रीमद्भगवद्गीता, शांकरभाष्यसहित, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2000

12. श्रीमद्भागवतपुराणम्, श्रीधरस्वामीकृत भावार्थबोधिनी टीकासहित, संपा. जगदीश लाल शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1983, प्रथम संस्करण

13. भारतीय दर्शन : आलोचना और अनुशीलन, चन्द्रधर शर्मा, मोतीलाल बनरसीदास, दिल्ली, 2004, पुनर्मुद्रण
14. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, शारदा मन्दिर, वाराणसी, 2001, पुनर्मुद्रण

15. The Tao of Physics : An Exploration of the Parallels Between Modern Physics and Eastern Mysticism, Fritjof Capra, Shambhala publications, Berkeley, California, 1975.

16. Science and Spirituality, B.K. Jagdish Chander, Brahmakumaris World Spiritual University, Pandav Bhawan, Mount Abu, 1988.

17. Parallels between Science and Religion and Philosophy and Science- A Critical Review, B.K. Jagdish Chander, Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Pandav Bhawan, Mount Abu, Rajasthan, 1994, 1st edition.

18. The complete Works of Swami Vivekananda, Advaita Ashram, Calcutta, 1977.

19. The New Vedic Selection, Braj Bihari Chaubey, Bharatiya Vidya Prakashan, Varanasi, 1972.

20. Upanişad Series : Śvetāśvataropanişad, Swami Tyagisananda, Sri Ramakrishna Math, Mylapore, Madras, 7th edition.

21. The New Encyclopaedia Britannica, Vol-10, Encyclopaedia Britannica Inc., Chicago, 1993, Rpt.